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प्रत्यक्ष-प्रमाण
नैरात्म्य की स्वीकृति में यथादर्शन प्रमाण, प्रमेय एवं फल की व्यवस्था नहीं बन सकती । २४७. जब तक आत्मा को स्वीकार न किया जाय तब तक प्रमाता वही है, यह निश्चय नहीं होता और प्रमाता के एक हुए बिना प्रमाण, प्रमेय एवं फल में व्यवस्था बन पाना संभव नहीं है । फलस्वरूप नैरात्म्यवाद में यथातत्त्व का न तो ज्ञान हो सकता है और न दूसरों को ही ज्ञान कराया जा सकता है। २४८
इस प्रकार मल्लवादी के अनन्तर भट्ट अकलङ्क ने निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के खण्डनार्थ अनेक नये तर्क उपस्थापित किये हैं तथा प्रत्यक्ष को विकल्पात्मक सिद्ध किया है। अकलङ्क निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को स्वलक्षणों में भेद का व्यवस्थापक नहीं मानते हैं तथा उसे अविशद, अनिश्चयात्मक, विसंवादी एवं संव्यवहार के लिए अनुपयोगी सिद्ध करते हैं। विकल्पात्मक अथवा निश्चयात्मक ज्ञान को ही अकलङ्क अविसंवादी, संव्यवहार के लिए उपयोगी एवं विशद प्रतिपादित करते हैं। यही नहीं अकलङ्क निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्षाभास सिद्ध कर अक्षणिक एवं स्थूल आकार के ग्राहक सविकल्पात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं । अकलङ्क ने प्रत्यक्ष प्रमाण को विशेषण विशेष्य युक्त वस्तु का ग्राहक एवं अभिलाप के संसर्गयोग्य भी स्वीकार किया है। उन्होने विशदता की कसौटी स्मृति को बताया है । जो ज्ञान विशद होता है वही स्मरणयोग्य होता है। अविशद ज्ञान स्मृति में नहीं रह सकता । स्मृति के साथ अभ्यास, पाटव आदि की उपपत्ति भी अकलङ्क व्यवसायात्मक ज्ञान में ही स्वीकार करते हैं अव्यवसायात्मक अथवा निर्विकल्पात्मक ज्ञान में नहीं ।
विद्यानन्द
यद्यपि विद्यानन्द के चिन्तन पर अकलङ्क का प्रभाव है, तथापि विद्यानन्द ने बौद्ध-प्रत्यक्ष का खण्डन करते समय कुछ मौलिक तर्क दिये हैं जिनका अनुसरण अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि दार्शनिकों ने भी किया है ।
कल्पना के चार अर्थ-धर्मकीर्तिप्रणीत प्रत्यक्ष लक्षण "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् ” का खण्डन करने के लिए उद्यत विद्यानन्द ने बौद्धों की ओर से कल्पना के चार अर्थ कल्पित किये हैं: (१) अस्पष्ट प्रतीति कल्पना है (२) स्व एवं अर्थ की निश्चिति कल्पना है (३) अभिलापवती प्रतीति कल्पना है अथवा (४) अभिलाप संसर्गयोग्य प्रतीति कल्पना है। कल्पना के इन चार स्वरूपों में से प्रारम्भिक दो को विद्यानन्द ने कल्पना रूप में स्वीकार किया है, किन्तु अस्पष्ट प्रतीति रूप कल्पना का जैन सम्मत प्रत्यक्षलक्षण में परिहार किया है तथा स्व एवं अर्थ की व्यवसिति रूप कल्पना को जैन प्रत्यक्षलक्षण में आवश्यक माना है । अन्तिम दो स्वरूपों को ग्रंथ का आकार बढाने वाला बतलाकर उन्हें महत्त्व नहीं दिया है । २४९
२४७. धर्मकीर्ति ने प्रमाण, प्रमेय एवं फल की व्यवस्था यथादर्शन स्वीकार की हैयथानुदर्शनं चेयं मेयमानफलस्थिति: ।
क्रियते विद्यमानापि ग्राह्यग्राहकसंविदाम् ॥ - प्रमाणवार्तिक २.३५७
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२४८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
२४९. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
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