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________________ १५२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा है। उसका ही निश्चय हो पाता है अतः वह निश्चयात्मक ज्ञान ही विशदज्ञान है । उससे ही सादृश्य की स्मृति हो पाती है। विशद ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। निर्विकल्पक ज्ञान अव्यवसायात्मक होने के कारण विशद नहीं कहा जा सकता ।अतः वह प्रत्यक्ष नहीं,प्रत्यक्षाभास है ।२४३ अविभक्त प्रत्यक्ष में विकल्प एवं प्रान्ति सम्भव नहीं-धर्मकीर्ति ने ज्ञान को विज्ञानवाद की दृष्टि से अविभक्त कहते हुए भी उसे ग्राह्य -ग्राहक की दृष्टि से विभागी माना है ।२४४ अकलङ्क ने इस कथन को आधार बनाते हुए "कल्पनापोढमप्रान्तं प्रत्यक्षम्” का खण्डन किया है । अकलङ्ककहते हैं कि यदि प्रत्यक्ष अविभक्त होता है तो वह बाहर से विभक्त की भांति क्यों प्रतीत होता है ? उसमें कल्पना एवं प्रान्ति कैसे संभव होती है ? कल्पना रहित एवं अप्रान्त ज्ञान में भी जब विकल्प एवं प्रान्ति संभव है तो प्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्षाभास में भेद प्रदर्शित करने का आधार नहीं रहता है । यदि स्वयं अविभक्त ज्ञान में कल्पना से रचित ग्राह्य-ग्राहक ज्ञान का भेद ज्ञात होता है तो उसी प्रकार एक चन्द्रमा को देखने वाले पुरुष को द्विचन्द्र की मानसी प्रान्ति हो सकती है। अतः प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ नहीं कहा जा सकता।२४५ व्यसायात्मक ज्ञान की ही स्मृति सम्भव-अकलङ्क के मत में व्यवसायात्मक ज्ञान की ही स्मृति हो सकती है। दर्शन, अभ्यास, पाटव,प्रकरण आदि भी व्यवसायात्मक ज्ञान में ही हो सकते हैं। क्षणिक एवं अव्यवसायात्मक ज्ञान की स्मृति नहीं हो सकती,अतःधर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा कल्पित प्रत्यक्ष सर्वथा अव्यवसायात्मक नहीं ,अपितु व्यवसायात्मक अथवा विकल्पात्मक होना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक नहीं मानने पर क्षणभंगादि की सिद्धि के लिए भी लिङ्ग का स्मरण नहीं हो सकता। लिङ्ग का स्मरण हुए बिना अनुमान की प्रवृत्ति भी संभव नहीं है । बौद्धों ने प्रत्यक्ष में रहे हुए समारोप का निवारण करने के लिए अनुमान की प्रवृत्ति आवश्यक मानी है,किन्तु अकलङ्क कहते हैं कि समारोप के व्यवच्छेद के आकांक्षी पुरुष के लिए निर्विकल्पक ज्ञान में प्रामाण्य मानना समीचीन नहीं है। __ अकलङ्कने व्यवसायात्मक ज्ञान में ही वैशद्य स्वीकार किया है ,क्योंकि विशदज्ञान की ही स्मृति संभव है। व्यवसायात्मक ज्ञान से जन्य संस्कार द्वारा ही प्रत्यभिज्ञान होता है । व्यवसायात्मक ज्ञान की विशदता का अनुभव से विरोध नहीं है ।२४६ नैरात्म्यवाद में प्रमाण प्रमेय एवं फल-व्यवस्था अनुपपन्न-बौद्ध दार्शनिक नैरात्म्यवादी हैं। अतः भट्ट अकलङ्कने नैरात्म्यवादको आधारबनाकर भी प्रत्यक्ष के अप्रान्त लक्षणका खण्डन किया है । अकलङ्क कहते हैं कि समस्त पदार्थों का नैरात्म्य प्रतिपादित करके प्रत्यक्ष को अप्रान्त कहना उन्मत्तता है। २४३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख२४. अविभागोऽपि बुद्यात्मविपर्यासितदर्शनैः । मायग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।-प्रमाणवार्तिक, २.३५४ २४५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २४६.द्रष्टव्य परिशिष्ट-ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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