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प्रत्यक्ष-प्रमाण
ज्ञान की ही विशुद्धता ज्ञात होती है। इसलिए विकल्पात्मक ज्ञान ही विशद एवं प्रत्यक्ष होता है । २३८ विकल्पोत्पादक मानने से प्रत्यक्ष एकान्ततः विकल्परहित नहीं होता-अकलङ्क कहते हैं कि कोई भी प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वथा विकल्परहित नहीं होता, क्योंकि सर्वथा अविकल्प बुद्धि से विकल्प ज्ञान का उत्पन्न होना शक्य नहीं है । २३९ यह संभव है कि स्वलक्षण-भेद की भांति कल्पनाएं प्रत्यक्ष में उपलक्षित नहीं हों, किन्तु प्रत्यक्ष में उनका अभाव नहीं होता। वे प्रतिक्षण उत्पन्न एवं नष्ट होती रहती हैं।
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बौद्ध कहते हैं कि सदृश अपर- अपर क्षणों की उत्पत्ति होनें से अर्थ के विशेष स्वरूप स्वलक्षण का बोध नहीं होता, उसके सदृश क्षणों में ही मनुष्य को परमार्थ क्षण का भ्रम होता रहता है । अकलङ्क इसका निरसन करते हुए कहते हैं कि बौद्ध मत में क्षणभंगवाद के कारण दो क्षणों में सर्वथा सादृश्य अनिष्ट एवं अयुक्त है ।
वस्तुतः प्रत्यक्ष में समस्त कल्पनाओं का एकान्त विरह संभव नहीं है, क्योंकि सर्वथा अविकल्प बुद्धि पुनः विकल्प को उत्पन्न नहीं कर सकती । २४०
अविकल्प एवं अभ्रान्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं, प्रत्यक्षाभास है। इन्द्रियों एवं उनके विषयों का निश्चय करने वाले जैनों के प्रत्यक्ष में ही अविसंवादिता का नियम है, क्योंकि उसमें व्यवसायात्मकता है।
बौद्ध यदि समस्त विकल्पों को वितथ या मिथ्या मानते हैं, तो यह उचित नहीं है; क्योंकि विकल्प के अभाव में बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष प्रमाण का व्यवस्थापन नहीं कर सकते । विकल्पों से परमार्थतः ने प्रत्यक्ष की प्रमाण-व्यवस्था की है, ऐसा बौद्ध कथन “जहां यह इस प्रकार के विकल्प को उत्पन्न करता है, वहां ही उसकी प्रमाणता है” २४१ से भी पुष्ट होता है। २४२
प्रत्यक्ष अभिलाप के संसर्गयोग्य होता है- अकलङ्क न्यायदार्शनिकों की भांति प्रतिपादित करते हैं कि प्रत्यक्ष द्वारा जिस प्रमेय का ज्ञान होता है वह किसी विशेषण से विशिष्ट होता है। विशेषण, विशेष्य एवं उनके सम्बन्ध का ग्रहण किये बिना किसी प्रमेय का ज्ञान नहीं होता। स्व एवं अर्थ का इन्द्रिय से सन्निकर्ष होने पर जो ज्ञान होता है वह एक स्थूल प्रमेय का ज्ञान होता है वह अभिलाप (वाचक शब्द ) के संसर्ग योग्य होता है । उसे अभिलाप के संसर्ग के अयोग्य नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अभिलापसंसर्ग के अयोग्य मानने पर सदृश विषय की स्मृति कहना संभव नहीं है ।
अक्षाणिक एवं स्थूल-आकारक वस्तु का प्रत्यक्ष-अकलङ्क बौद्धों से कहते हैं कि क्षणिक परमाणु रूप स्वलक्षणों को देखता हुआ भी पुरुष केवल अक्षणिक एवं स्थूल आकार का ही स्पष्ट ज्ञान कर पाता
२३८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट ख
२३९. बौद्धदार्शनिक शान्तरक्षित ने अविकल्प ज्ञान को विकल्प की उत्पत्ति में समर्थ बतलाया है । द्रष्टव्य, यही अध्याय, पाद टिप्पण, १२०
२४०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
२४१. यत्रैव जनयेदेनाम् तत्रैवास्य प्रमाणता - न्यायविनिश्चयविवरण, भाग १, पृ. ५२३ एवं सिद्धिविनिश्चयटीका पृ० १०८ २४२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
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