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के परित्याग का विचार होता है, अतः वही तत्त्वतः प्रमाण है ।
नियात्मक ज्ञान ही अविसंवादक-जिस प्रकार अज्ञानी पुरुष विष को देखकर भी उसके हानिलाभ का सम्यक् निर्णय नहीं कर सकता, उसी प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से हान एवं उपादान का निर्णय नहीं होता । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निश्चयात्मक नहीं होने के कारण अविसंवादक नहीं कहा जा सकता तथा अविसंवादक नहीं होने से वह प्रमाण नहीं हो सकता। जो ज्ञान, व्यवसायात्मक होता है वही अविसंवादक होता है एवं अविसंवादक ज्ञान ही प्रमाण होता है। निर्विकल्पक ज्ञान व्यवसायात्मक नहीं होता, अतः वह अविसंवादक भी नहीं होता है । फलतः उसे प्रमाण भी नहीं कहा जा सकता।'
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
बौद्धदार्शनिक सुखादि एवं नीलादि के निर्भासी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं, क्योंकि वह अविसंवादक होता है। अकलङ्क इसका निरसन करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि विकल्पात्मक ज्ञान ही अविसंवादक होता है, क्योंकि वह व्यवसायात्मक होता है। अविसंवादी प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक मानने पर क्षण-क्षयादि की सिद्धि के समान उसकी सिद्धि के लिए भी अन्य अनुमान आदि प्रमाणों की आवश्यकता उत्पन्न होगी, क्योंकि निर्विकल्पक तो निश्चयात्मक होता नहीं है। उसका निश्चय हुए बिना अविसंवादकता सिद्ध नहीं होती और अविसंवादकता के बिना उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता ।
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निर्विकल्पक ज्ञान स्वलक्षणों में भेद का अव्यवस्थापक- प्रत्यक्ष का कल्पनापोढ एवं अभ्रान्त लक्षण विसंवाद को ही उत्पन्न करता है, क्योंकि उससे यथादृष्ट अर्थ का निर्णय नहीं होता। स्वलक्षणग्राही अविकल्पक ज्ञान यथार्थ प्रतिभासित अर्थ का व्यवसाय करने में समर्थ नहीं है, अतः वह अविसंवादक नहीं है। निर्विकल्प स्वभाव वाले प्रत्यक्ष से अद्वैत की भांति स्वलक्षण का व्यवस्थापन भी शक्य नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पकता से भेद का ज्ञान नहीं होता । अतः उससे विभिन्न स्वलक्षणों में भेद रूप व्यवस्थापन संभव नहीं है । २३६
विकल्पात्मक ज्ञान ही विशदावभासक-अकलङ्क धर्मकीर्ति का खण्डन करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि सब ओर से चिन्तन (विकल्प) को समेट लेने पर भी सविकल्प ज्ञान का ही अवभासन होता है, निर्विकल्पक का नहीं । शान्तचित्त मनुष्य भी चक्षु से रूपयुक्त, संस्थानयुक्त, स्थूल, एक एवं अनेक सूक्ष्म स्वभावों वाले पदार्थ का ही प्रत्यक्ष करता है, असाधारण एकान्त स्वलक्षण का नहीं। विकल्पात्मक ज्ञान में ही बाह्य अर्थों का विशद अवभासन होता है। स्व-संवेदन से भी विकल्पात्मक
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२३४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २३५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट- स्ख
२३६. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
२३७. यहां अकलङ्क के खण्डन का लक्ष्य धर्मकीर्ति की यह कारिका हैसंहृत्य सर्वतश्चिन्त साक्षजा मति: । द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, ८५
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