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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १५५ किया है उसी प्रकार निर्विकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष से ज्ञात अर्थ का स्मरण भी नहीं हो सकता। यदि अभ्यासादि में अश्व की कल्पना करते हुए भी गोदर्शन की स्मृति देखी जाती है तो वह व्यवसायात्मक ज्ञान के कारण ही देखी जाती है, निर्विकल्पकता के कारण नहीं।२५३ इस प्रकार विद्यानन्द ने अकलङ्क के द्वारा दी गई युक्ति को ही आगे बढाया है। सामान्यविशेषात्पक अर्थ का ज्ञान सविकल्पक ही होता है-बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता है कि प्रत्यक्ष की उत्पत्ति अर्थ-सामर्थ्य से होती है, इसलिए वह निर्विकल्पक होता है, किन्तु उनकी इस मान्यता का विद्यानन्द यह कह कर निराकरण कर देते हैं कि अर्थ जात्याधात्मक अथवा सामान्यविशेषात्मक होता है एवं उससे उत्पन्न ज्ञान निर्विकल्पक नहीं सविकल्पक ही होता है। वह सविकल्पक प्रत्यक्ष ज्ञान परमार्थतः स्फुट या विशद होता है । उस पर वैशध का आरोप नहीं होता एवं वह निर्विकल्पक भी नहीं होता है । बौद्ध दार्शनिकों का मन्तव्य है कि अर्थ से निर्विकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है तथा निर्विकल्पक से सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है । विद्यानन्द का कथन है कि इससे तो अर्थ का सीधे सविकल्पक ज्ञान मानना ही उचित है,क्योंकि वही स्पष्ट प्रतीति में आता है ।२५४ विद्यानन्द प्रमेय अर्थको जात्याद्यात्मक मानने के कारण भी उसके प्रत्यक्ष को सविकल्पक मानते हैं। विद्यानन्द के अनुसार अर्थ का जात्याद्यात्मक स्वरूप असिद्ध नहीं है । वस्तु का जात्याद्यात्मक बोध निर्बाध होता है । जात्याधात्मक अर्थ एवं स्व की व्यवसिति रूप कल्पना प्रत्यक्ष में स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है। शब्दयोजना के अभाव में भी निश्चयात्मकता सम्भव-वे बौद्ध प्रतिपादित “अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना" का खण्डन करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष के निश्चयात्मक होने में शब्द-योजना आवश्यक नहीं है। बिना शब्दयोजना के भी ज्ञान निश्चयात्मक हो सकता है । यदि प्रत्यक्ष में अर्थ के वाचक शब्द विशेष की अपेक्षा की जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है। वाचकशब्द का स्मरण होने से व्यवसाय हो तथा व्यवसाय होने पर वाचक शब्द का स्मरण हो-इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न हो जाता है । इसलिए समस्त व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष स्वतःउत्पन्न होता है । संकेत स्मरण रूप एवं दृष्ट अर्थ में संकल्पात्मिका रूप कल्पना को विद्यानन्द स्पष्ट व्यवसिति नहीं मानते हैं, इसलिए संकेतस्मरणादियुक्त कल्पना को भी विद्यानन्द ने सविकल्पक प्रत्यक्ष में अंगीकार नहीं किया है। विद्यानन्द कहते हैं कि अर्थ से दूर चले जाने पर उसके अभिलाप शब्द का निश्चय हो तो क्या वह ज्ञान अर्थ निश्चयात्मक नहीं कहलायेगा? अर्थात् कहलाएगा। यहां पर विद्यानन्द ने वैशेषिक, व्याकरण आदि दर्शनों का भी खण्डन कर दिया है जो शब्दयोजना के अभाव में ज्ञान को अध्यवसायात्मक नहीं मानते हैं।२५५ २५३. (i) द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख (i) विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा में धर्मकीर्ति के मूल मन्तव्य देकर उनका खण्डन किया है । द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २५४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २५५. द्रष्टव्य परिशिष्ट-ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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