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________________ भूमिका ओर से एक हेतु और दिया जा सकता है। वह है प्रमाण की अर्थाकारता या अर्थसरूपता । प्रमाण को बौद्ध दार्शनिकों ने अर्थाकार प्रतिपादित किया है ।...प्रत्यक्ष भी प्रमाण होने के कारण अर्थाकार होना चाहिए.... ज्ञान अर्थाकार होकर भी निर्विकल्पक हो,यह संभव नहीं है ।” (पृ. २०५-२०६) स्पष्ट है कि डॉ.जैन विचाराधीन विषय में इतना रचपच कर लिख रहे हैं कि वे केवल पुराने तर्कों को दोहरा ही नहीं रहे, अभिनव तर्क देने की स्थिति में भी हैं। उपर्युक्त विवरण से ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि डॉ.जैन का दृष्टिकोण भेदभावपूर्ण है। उन्हें जहां कहीं ऐसा लगा कि जैन दार्शनिक बौद्ध तथा अन्य दार्शनिकों के ऋणी हैं.वहां उसे उन्होंने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है । हेतु के भेदों का निरूपण करते समय वे लिखते हैं, “जैन दार्शनिकों पर हेतु-भेद निरूपण में बौद्धों का प्रभाव रहा है । यही नहीं ,अपितु जैन दार्शनिकों ने न्याय,मीमांसा,वैशेषिक आदि दर्शनों में विद्यमान हेतुओं का भी अपने हेतु-भेदों में यथाशक्य समावेश कर लिया है। कारणहेतु का प्रतिपादन न्याय एवं सांख्य दर्शन में प्रतिपादित पूर्ववत् हेतु का ही संशोधित रूप है। पूर्वचर हेतु की कल्पना संभवतः मीमांसा दर्शन में प्रतिपादित कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लृप्तिवत्' वाक्य के आधार पर की गई है।” (पृ० २४४) ___उपर्युक्त मीमांसादर्शन के उल्लेख के समान ही डॉ.जैन ने बौद्ध तथा जैनदर्शन से इतर अन्य दर्शनों का भी यथेष्ट उपयोग किया है जो उनके व्यापक अनुशीलन का परिचायक है। उदाहरणतः वे कहते हैं, बौद्ध एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित अविनाभाव नियम रूप व्याप्ति का गंगेश ने खण्डन किया है। गंगेश का कथन है कि अविनाभाव नियम को व्याप्ति नहीं कहा जा सकता,क्योंकि वह केवलान्वयी अनुमान में अव्याप्त है।” (पृ. २६९) बौद्ध-जैनेतर दर्शनों के इस प्रकार के प्रासंगिक उल्लेख के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय संकीर्ण होने से बच गया है। जैनदृष्टि का प्रतिपादन करते समय डॉ.जैन ने अनेकान्त की आत्मा को पकड़ा है। इसी कारण वे कहते हैं कि “शब्द का केवल विधिपरक अथवा केवल अपोहपरक अर्थ पर्याप्त नहीं है। दोनों अर्थों को लेकर ही शब्द का पूर्ण अर्थ बनता है । (तुलनीय पृ० ३५१) इस प्रकार की । संतुलित दृष्टि अनेकान्तवादी चिन्तन से ही प्रसूत हो सकती है। ___पारस्परिक वादविवाद के बिन्दुओं को उजागर करने के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में अनेक उपयोगी सूचनाएं भी है। उदाहरणतः जैनों की इस दार्शनिक मान्यता का कि आत्मा में सम्पूर्ण ज्ञान है, किन्तु वह ज्ञानावरणीय कर्म के कारण प्रकट नहीं हो पाता (तुलनीय पृ. ३७९) शिक्षा जगत् में सफल उपयोग हो सकता है । अध्यापक यदि विद्यार्थी पर ज्ञान ऊपर से न थोपे ,बल्कि उस विद्यार्थी के ही अन्दर निहित ज्ञान को अनावृत करने का प्रयत्न करे तो ऊपर से थोपे गए ज्ञान की अपेक्षा वह ज्ञान सहज होने के कारण अधिक चिरस्थायी होगा। प्रस्तुत ग्रन्थ के विवेच्य विषय का काल प्रमुखतः पांचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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