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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा 1 और' अ’'ब' नहीं है — ये दोनों वक्तव्य युगपद् सत्य नहीं हो सकते । इसके विपरीत अनेकान्त यह मानता है कि कोई भी सत्य अनुभव निरपेक्ष नहीं है। यदि अनुभव में यह आता है कि 'अ' एक अपेक्षा से 'ब' है और दूसरी अपेक्षा से 'ब' नहीं है, तो किसी स्वतः सिद्ध सत्य की दुहाई देकर इस अनुभव का अपलाप नहीं किया जाना चाहिए। मूल विवाद का मुद्दा यह है कि क्या हम एक सत्य को स्वतः सिद्ध मानकर उसके आधार पर अनुभव की व्याख्या करें, या अनुभव को प्रमाण मानकर उसके आधार पर तर्क का ढांचा खड़ा करें। यदि हम अनुभव को प्रमाण मानकर तर्क का ढांचा खड़ा कर दें तो स्वतः ही अनेकान्तवाद फलित हो जाता है। किन्तु यदि हम कुछ ऐसे स्वतः सिद्ध सत्यों को मानते हैं जो अनुभव से भी ऊपर हैं तो फिर अनुभव पर टिकने वाला अनेकान्त लड़खड़ा जाता है। हमारे सामान्य अनुभव को प्रामाणिक मानने वाले सभी दर्शन चाहे वे जैन हों या मीमांसक, नैयायिक हों या सांख्य, किसी न किसी रूप में अनेकान्तवादी हैं । किन्तु हमारे अनुभव में आने वाले नैरन्तर्य तथा सामान्य को भ्रान्त मानने वाले बौद्ध तथा अनुभव में आने वाले परिवर्तन तथा विशेष को माया मानने वाले वेदान्ती अनेकान्त को स्वीकार नहीं कर सकते। उनकी दृष्टि में अनेकान्त परस्पर विरुद्ध तथ्यों को मानने के कारण अप्रामाणिक ही ठहरता है। इस मूलभूत मतभेद के कारण बौद्ध और वेदान्ती संक्षेप अनेकान्त का खण्डन करके ही संतुष्ट हो जाते हैं; वे यह मान लेते हैं कि अनेकान्त का खण्डन होने से अन्य सब जैन मान्यताएं तो स्वतः ही खण्डित हो गई । X इसके विपरीत जैनदार्शनिक को केवल अनेकान्त की स्थापना से ही संतोष नहीं होता । बौद्ध मान्यताओं में जहां जहां भी उसे अनुभव का अपलाप होता दिखाई देता है वहां वहां द्ध मान्यताओं के विरुद्ध तर्क पर तर्क देता जाता है। डॉ. धर्मचन्द जैन ने ऐसे ही सब तर्कों विश्लेषण को अपने प्रस्तुत शोध ग्रन्थ का मेरुदण्ड बनाया है। यह विश्लेषण क्योंकि मूलग्रन्थों पर आधृत है, अतः इसकी प्रामाणिकता निस्संदिग्ध है। विशेषता यह है कि डॉ. जैन ने केवल जैन ग्रन्थों में बौद्ध मान्यताओं के विरुद्ध दी गई युक्तियों को यथावत् संकलित करके ही संतोष नहीं कर लिया है, अपितु पदे पदे अपनी सूक्ष्मेक्षिका, स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता और अध्ययन की व्यापकता का परिचय भी दिया है। दो चार उदाहरणों से अपने इस कथन की पुष्टि करना चाहूंगा । द्धद्वारा निरूपित प्रमाण की अविसंवादिता का जैनों ने जो खण्डन किया है उसका विवेचन करते हुए डॉ. जैन लिखते हैं- “वस्तुतः बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को सांव्यवहारिक दृष्टि) से अविसंवादी मानते हैं, पारमार्थिक दृष्टि से नहीं। जैन दार्शनिकों ने जो खण्डन किया है वह बौद्धों की पारमार्थिक दृष्टि से किया है । ” ( पृ० १०४) इन दो वाक्यों में ही सारे विवाद का सार भी आ जाता है और निपटारा भी हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मानने वाले बौद्ध के विरुद्ध दिये जाने के लिए एक नवीन युक्ति जैन दार्शनिकों को सुझाते हुए डॉ. जैन कहते हैं- "बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष को सविकल्पक सिद्ध करने के लिए जैन दार्शनिकों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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