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प्रत्यक्ष-प्रमाण
है, तदनुसार 'जिस प्रकार एक ज्ञान दो अर्थों को नहीं जानता है उसी प्रकार दो ज्ञान एक अर्थ को नहीं जानते है । २२७
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संचय एवं नीलरूप का एक ज्ञान होने के कारण यदि इनको एक ज्ञेय माना जाय तो समस्त पदार्थ सभी रूप हो जायेंगे अर्थात् सर्वसर्वात्मवादिता का प्रसंग आ जायेगा ।
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इस प्रकार मल्लवादी ने 'चक्षुर्विज्ञानसमंगी नीलं विजानाति' को अनुपपन्न सिद्ध किया है। वे 'नो नीलमिति' वाक्यांश को उपयुक्त ठहराते हुए कहते हैं कि 'नो नीलमिति' कथनांश ही घटित हो पाता है, क्योंकि यहां नीलपरमाणु के आकार का नियत ज्ञान उत्पन्न होने के हेतु का अभाव रहता है समुदाय से नियतज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें नीलत्व का अभाव है। भिन्न-भिन्न परमाणुओं के संहत होने पर सरसों के ढेर की भांति उनका ज्ञान होता है, तो यह भी कथन अयुक्त है, क्योंकि वे नीलपरमाणु परस्पर भिन्न हैं उनकी नीलता प्रतिपरमाणु भिन्न है, वह स्वाश्रय परमाणु से अन्यत्र नहीं है, अतद्रूप होने से। अतः एक दूसरे की नीलता अन्य परमाणु में नहीं आती । फलतः समस्त परमाणुओं की नीलता को सरसों की राशि की भांति एक साथ नहीं देखा जा सकता, क्योंकि सब परमाणुओं की नीलता भिन्न-भिन्न है। जाति, आकार आदि से वे नील परमाणु एक नहीं हो सकते, क्योंकि वे परस्पर अत्यन्त व्यावृत्त हैं। अत्यन्त व्यावृत्त इसलिए हैं क्योंकि वे द्रव्यसद्रूप हैं। द्रव्यसद्रूप होने का अर्थ है जिसका अन्य से निरपेक्ष अपना विविक्त स्वरूप हो। उन द्रव्यसद्रूप परमाणुओं का चक्षु द्वारा ग्रहण नहीं होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि चक्षुर्विज्ञान समंगी नील को नहीं जानता है ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष की उत्पत्ति के विधायक वाक्य 'चक्षुर्विज्ञानसमंगी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति' का अर्थ प्रकट होता है कि चक्षुर्विज्ञान का संचित आलम्बन वाला सन्तान संचय रूप संवृत्तिसत् को नील रूप में जानता है जो कि असत् है तथा वही चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। वस्तुतः बौद्ध मत मे नील असद्रूप नहीं होता है। वह तो परमार्थ सत् होता है। परमार्थ सत् परमाणु ही नील होते हैं, संचय नहीं । तात्पर्य यह है कि चक्षुर्विज्ञान का सन्तान परमार्थ नील को नहीं जानता है, संचयरूप नील को जानता है। २२८
'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञी' वाक्य का खण्डन- भावना वाक्य 'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे घर्ससंज्ञीति' भी उचित सिद्ध नहीं होता। मल्लवादी ने इसका खण्डन करते हुए इस वाक्य को उलट कर रख दिया है, यथा 'अनर्थेऽर्थसंज्ञी, न च कदाचित् कश्चिदप्यर्थे धर्मसंज्ञी' । संवृतिसत् होने से समुदाय अनर्थ है। बौद्धमत में अनर्थ रूप समुदाय में ही द्रव्यसत् नील परमाणु का ज्ञान होता है, अर्थ रूप द्रव्यसत् परमाणुओं मे नील का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि वे परमाणु अतीन्द्रिय होने से इन्द्रिय के २२७. विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा ।
एकमर्थं विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा ।- चतुःशती २६८, उद्धृत, द्वादशारनयचक्र (ज), भाग-१, पृ. ७३ २२८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
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