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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रत्यक्ष के स्वलक्षण मात्र विषय से विरोध दिखाई देता है और प्रत्यक्ष-लक्षण के उदाहरण रूप में जो 'चक्षुर्विज्ञानसमड़ी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति' कथन किया गया है वह भी घटित नहीं होता है, क्योंकि चक्षु के द्वारा रूपमात्र का ग्रहण होता है संचय का नहीं। संचय का ग्रहण नहीं होने से संचितालम्बन की कल्पना व्यर्थ सिद्ध होती है। संचय संवृतिसत् है,अतः वह परमार्थतः असत्त्व है तथा रूपरहित है। चक्षु द्वारा रूपरहित संचय का ग्रहण नहीं हो सकता, फलतः चक्षु,इन्द्रिय के रूप में ही सिद्ध नहीं होता। रूप परमाणु स्वलक्षणों का भी चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे परमाणु अतीन्द्रिय होने से चक्षु इन्द्रिय के विषय नहीं बनते । इस प्रकार संचय तथा परमाणु दोनों में चक्षु द्वारा रूप का ग्रहण नहीं हो पाता, फलतः चक्षु इन्द्रिय के द्वारा होने वाला चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न नहीं होता।
जिस प्रकार रूप का ग्रहण नहीं कर पाने के कारण चक्षु को चक्षु नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार अन्यथा अर्थ प्रतिपत्ति के कारण विज्ञान को भी विज्ञान नहीं कहा जा सकता । रूपहीन संचय की रूप के रूप में प्रतिपत्ति तथा रूपमात्र की संचय के रूप में प्रतिपत्ति होना अन्यथा अर्थप्रतिपत्ति है । जिस प्रकार अलात को घुमाने पर जो चक्र की प्रतिपत्ति होती है,वह अन्यथा प्रतिपत्ति है,उसी प्रकार यहां जो चक्षुर्विज्ञान होता है वह अन्यथाप्रतिपत्त्यात्मक होता है। ___चक्षु एवं विज्ञान का खण्डन करने के पश्चात् उसी आधार पर मल्लवादी ने उसके समंगित्व का भी खण्डन किया है । रूप का ग्रहण हुए बिना चक्षुर्विज्ञान का समंगन (सन्तान) कैसे होगा? संचय तो रूप है नहीं,अतःउसका चक्षुर्विज्ञान नहीं होता तथा अतीन्द्रिय होने से रूपाणुओं का भी चक्षुर्विज्ञान नहीं होता अतः इनका समंगन (सन्तान) नहीं हो सकता।
चक्षुर्विज्ञान की सन्तान नील को जानती है यह मानना भी उचित नही है,क्योंकि तदाकार ज्ञान की उत्पत्ति के हेतु का अभाव है । जिस प्रकार दग्ध पुरुष को दाह के अनुभव का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि उसमें तदाकार ज्ञान की उत्पत्ति के हेतु का अभाव है ।इसी प्रकार नीलाकार ज्ञान की उत्पत्ति के हेतु नीलरूप का चक्षुर्विज्ञान में अभाव है ।अतः उसकी सन्तान नीलरूप को नहीं जानती है।
यदि यह कहा जाय कि नीलरूप एवं संचय दोनों मिलकर ज्ञान के कारण बनते हैं, तो ऐसा नहीं हो सकता,क्योंकि दोनों का युगपद् ज्ञान होना असंभव है। सिंहसूरि ने बौद्ध पक्ष को स्पष्ट करते हुए कहा है कि नीलपरमाणु शिविकोद्वाहन्याय से समुदित होकर ज्ञान के कारण बनते हैं,एक एक नहीं। नीलपरमाणुओं से अतिरिक्त कोई समुदाय नहीं है। इस प्रकार नीलपरमाणुओं का समुदाय ज्ञान का कारण है । सिंहसूरि इसका प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि नीलपरमाणु एवं उनके समुदाय को मिलाकर ज्ञान का कारण नहीं कहा जा सकता।२२६ प्रतिषेधार्थ सिंहसूरि ने बौद्ध ग्रंथ के कथन को उद्धृत किया २२६. स्यान्मतम्-त एव हि नीलपरमाणव: प्रत्येकं शिविकोताहन्यायेन समुदिताच कारणं न चकैकः न च
समुदायस्तव्यतिरिक्तोऽस्तीत्युभयकारणत्वं ज्ञानस्य, तस्माजानोत्पत्तिहेत्वभावासिद्धिरिति । -न्यायागमानुसारिणी, द्वादशारनयचक्र(ब) भाग-१,पृ.७३.९-११,धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक में भी इस आशय के श्लोक मिलते हैं। द्रष्टव्य यही अध्याय, पादटिप्पण,१००
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