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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
विषय नहीं बनते । अतः अनर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थेऽर्थसंज्ञी कथन उचित सिद्ध होता है । नील परमाणु रूप अर्थ में कभी भी धर्मसंज्ञा नहीं होती है ,क्योंकि वह अतीन्द्रिय होने से आत्यन्तिक रूप से सर्वदा अग्राह्य होता है । वस्तुतः अनर्थ में ही धर्मसंज्ञा होती है,क्योंकि संचय एवं नाम आदि दोनों कल्पनात्क होते है,उनमें कल्पना का अपोह असंभव है । शून्य को शून्य से गुणा करने पर शून्य ही प्राप्त होता है । इसी प्रकार असत् विषय से कल्पना भी असत् एवं निर्मूल सिद्ध होती है ।२२९ बौद्ध-प्रत्यक्ष की अप्रत्यक्षता-दिङ्नाग प्रणीत प्रत्यक्ष का खण्डन दिङ्नागवाक्यों के द्वारा करने मे भी मल्लवादी सिद्धहस्त हैं । प्रमाणसमुच्चय में दिइनाग ने प्रत्यक्ष को प्रतिपादित करते हुए कहा है 'तत्रानेकार्थजन्यत्वात् स्वार्थे सामान्यगोचरम् , (द्रष्टव्य,यही अध्याय,पादटिप्पण,९७) अर्थात् प्रत्यक्ष की उत्पत्ति अनेक स्वलक्षण परमाणुओं से होती है,एक स्वलक्षण परमाणु या अर्थ से नहीं । इसलिए स्वलक्षणों में सामान्यगोचरता होती है।
मल्लवादी ने कल्पनापोढ एवं स्वलक्षणविषयक बौद्ध प्रत्यक्ष का खण्डन करते समय दिइनाग के उपर्युक्त वाक्य का उपयोग करते हुए कहा है-दिङ्नाग द्वारा निर्दिष्ट प्रत्यक्ष अप्रत्यक्षरूप है,इसके दो हेतु बौद्धों के द्वारा प्रस्तुत कर दिये गये हैं । वे दो हेतु हैं- (1) अनेकार्थजन्यत्वात् एवं (2) स्वार्थे सामान्यगोचरत्वात् । अनेक परमाणुस्वलक्षणों (अर्थ) से जन्य होने के कारण बौद्धों द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष अनुमान की भांति अप्रत्यक्ष है । अनुमान जिस प्रकार पक्षधर्म आदि अनेक अर्थों से जन्य होने से अप्रत्यक्ष है उसी प्रकार प्रत्यक्ष भी अनेक परमाणु स्वलक्षण अर्थों से जन्य होने के कारण अप्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण (स्वार्थ) सामान्य रूप में गृहीत होता है इसलिए भी प्रत्यक्ष,अनुमान की भांति अप्रत्यक्ष सिद्ध होता है।
यदि अनेकार्थजन्य होने पर भी तथा स्वलक्षण के सामान्यगोचर होने पर भी उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है तो अनुमान-प्रमाण भी प्रत्यक्ष रूप में सिद्ध होने लगेगा । इस प्रकार एक ही प्रमाण मानना पर्याप्त होगा। वस्तुतः स्व एवं सामान्यलक्षण एक ही विषय है अतः उसके आधार पर प्रत्यक्ष एवं अनुमान में भेद नहीं किया जा सकता।२३०
इस प्रकार मल्लवादी ने दिङ्नाग प्रणीत प्रत्यक्ष को निरूपणात्मक होने से,आलम्बन के विपरीत प्रतिपत्त्यात्मक होने से,अध्यारोपात्मक होने से,सामान्यरूप विषयात्मक होने से,सत् एवं असत् दोनों का अभेद ग्राहक होने से विकल्पात्मक सिद्ध किया है ,साथ ही हेत्वन्तर से जन्य होने के कारण उसे व्यपदेश्य बतलाया है। अभिधर्मपिटक के दोनों वाक्यों का खण्डन भी प्रत्यक्ष की विकल्पात्मकता को सिद्ध करता है,यही नहीं मल्लवादी ने प्रत्यक्ष को अनेकार्थजन्य एवं स्वार्थसामान्यगोचर होने से
२२९. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख २३०.द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख
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