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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १४१ अवग्रह भी दो प्रकार का है-व्यञ्जनावग्रह एवं अर्थावग्रह ।२०१ पदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर पदार्थ का ज्ञान होने के पूर्व जो उसका आभास होता है वह व्यञ्जनावग्रह है । आगमसरणि के आचार्य जिनभद्र ने इन्द्रिय, अर्थ एवं उनके सन्निकर्ष को व्यञ्जनावग्रह माना है । अर्थावग्रह में पदार्थ का ग्रहण होता है कि यह कुछ है । चक्षु एव मन के अप्राप्यकारी होने से उनमें व्यञ्जनावग्रह नहीं होता,मात्र अर्थावग्रह होता है । शेष इन्द्रियों के प्रत्यक्ष में दोनों प्रकार के अवग्रह होते हैं। पूज्यपाद देवनन्दी ने व्यञ्जनावग्रह को अव्यक्त तथा अर्थावग्रह को व्यक्त ज्ञान माना है ।२०२ अवग्रह को निश्चयात्मक ज्ञान की श्रेणी में रखने वाले भट्ट अकलङ्क के अनुसार इन्द्रिय एवं अर्थ का योग होने परपदार्थ की सत्ता के आलोचनरूप अर्थ के आकार का निश्चयात्मक ज्ञान अवग्रह है।०३ विद्यानन्द ने अवग्रह को इन्द्रिय एवं अर्थ का योग होने पर वस्तुमात्र का ग्रहण होने के अनन्तर वस्तु भेद का ग्राहक प्रतिपादित किया है ।२०४ वादिदेवसूरि ने प्रतिपादित किया है कि विषय एवं इन्द्रिय का योग (सन्निपात) होने पर सत्ता मात्र को ग्रहण करने वाला दर्शन उत्पन्न होता है तदनुसार अवान्तर सामान्य से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाला अवग्रह उत्पन्न होता है ।२०५ आचार्य हेमचन्द्र ने इसी बात को सरल शब्दावली में प्रस्तुत करते हुए प्रतिपादित किया है कि इन्द्रिय एवं अर्थ का योग होने पर दर्शन उत्पन्न होता है, दर्शन के अनन्तर जो अर्थ का ग्रहण है वह अवग्रह है ।२०६ जैन नैयायिकों ने आगमिक धारा में प्रतिपादित अवग्रह के सामान्य-ग्रहण अर्थ को आगे न बढ़ाकर उसे निश्चयात्मक रूप में प्रस्तुत किया ,इसका मुख्य कारण प्रमाणशास्त्र में निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण मानना रहा है । ईहा- अवगृहीत अर्थ के विषय में विशेष जानने की चेष्टा अथवा आकांक्षा ईहा है ।२०७यथा निद्रा में सोये हुए व्यक्ति को लगातार आवाज लगाये जाने पर उसका आवाज से सम्पर्क होने पर यह आवाज है' इस रूप में ग्रहण तो अवग्रह है ,किन्तु उसके अनन्तर यह आवाज किसकी है-पुरुष की २०१. नन्दीसूत्र, २७ २०२. अर्थावग्रहव्यानावग्रहयोळक्ताव्यक्तकृतो विशेषः।- सर्वार्थसिद्धि १.१८ पृ०८१ २०३. अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽकारविकल्पधीः । ____ अवग्रहो.लषीयस्त्रय,५ २०४. अक्षार्थयोगजा वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् । जातं वद् वस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १.१५.२ भाग-३, पृ० ४३७ २०५.विवाविषविसन्निपातानन्तरसमुदमूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः । प्रमाणनवतत्त्वालोक, २.७ २०६. अक्षायोगे दर्शनान्तरमर्थग्रहणमवग्रहः।-प्रमाणमीमांसा, १.१.२६ २०७.(१) विशेषाकांक्षेहा - लषीयलय,५ (२) तद्गृहीतार्थसामान्ये यद्विशेषस्य कांक्षणम् । निश्चयाभिमुखं सेहा संशयादिन्नलक्षणा ।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१५.३ (३) अवगृहीतार्थविशेषाकाङ्क्षणमीहा ।—प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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