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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
विज्ञान है । बौद्ध मन से पृथक् आत्मा को स्वीकार नहीं करते हैं। उनके यहां मन से होने वाले प्रत्यक्ष को मानस प्रत्यक्ष कहा गया है जबकि जैनदर्शन में उसे अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा गया है।
मन का स्वरूप ,कारण,कार्य आदि भारतीय दर्शन में विवाद के विषय रहे है । मन का शरीर में क्या स्थान है इस सम्बन्ध में पं. सुखलाल संघवी के अनुसार दिगम्बर पक्ष द्रव्यमन को हृदयप्रदेशवर्ती स्वीकार करता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा समग्र स्थूल शरीरको द्रव्यमन का स्थान मानती है । भावमन तो आत्मस्वरूप है ही। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की प्रक्रिया
इन्द्रिय एवं मन के माध्यम से होने वाले बाह्यार्थ के प्रत्यक्ष के चार सोपान हैं - अवग्रह.ईहा. अवाय एवं धारणा । यद्यपि ये चारों सोपान मूलतः मतिज्ञान के भेदों में परिगणित हैं १९७ किन्तु जिनभद्र एवं अकलङ्कद्वारा मतिज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष के रूप में अंगीकार कर लिये जाने के कारण इन चारों भेदों को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की चार अवस्थाओं या चार सोपानों में समझा जा सकता
अवग्रह - अवग्रह के सन्दर्भ में जैनदार्शनिकों के दो मत हैं । प्रथम मत में उमास्वाति , जिनभद्र, सिद्धसेनगणि एवं यशोविजय हैं, जिनके अनुसार अवग्रह में निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता । द्वितीय मत अवग्रह को निश्चयात्मक ज्ञान मानता है । इस मत के प्रतिपादक एवं समर्थक हैं - पूज्यपाद देवनन्दी, अकलङ्क, विद्यानन्द ,वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र । प्रथम मत आगमिक धारा का प्रस्तावक एवं समर्थक हैं,तथा द्वितीय मत ज्ञान को प्रमाण मानने के कारण उसे निश्चयात्मक मानने वाला है । जैन दर्शन में दर्शन को निराकार एवं निर्विकल्पक माना गया है तथा ज्ञान को साकार एवं सविकल्पक । अवग्रह ज्ञान की अवस्था है ,दर्शन की नहीं । ज्ञान होने से,अवग्रह साकार एवं निश्चयात्मक है। वह दर्शन के अनन्तर होता है ।
वाचक उमास्वाति ने अवग्रह को परिभाषित करते हुए कहा है कि इन्द्रियों के द्वारा अपने विषयों का आलोचन पूर्वक अव्यक्त अवधारण अवग्रह है । १९८ अवग्रह के द्वारा विषय के सामान्यधर्मों का ज्ञान होता है तथा वह शब्दों द्वारा अनिर्देश्य होता है । जिनभद्र ने अर्थावग्रह के विषय को सामान्य, अनिर्देश्य ,स्वरूप नामादि की कल्पना से रहित प्रतिपादित किया है ।१९९ सिद्धसेनगणि ने उमास्वाति का अनुसरण किया है तथा यशोविजय (17 वीं शती)ने जिनभद्र के तर्को को ही संक्षेप में प्रस्तुत किया
है ।२००
१९७. अवग्रहावायधारणाः ।- तत्त्वार्थसूत्र १.१५, नन्दीसूत्र में इन चारों भेदों को आमिनिबोधिक ज्ञान के प्रतिनिश्रित भेदों
में गिनाया गया है - सुयनिस्सियं चउविहं पणतं, तंजहा - उग्गहे, ईहा, अवाओ, धारणा ।- नन्दीसूत्र, २६ १९८. तवाव्यक्तं यथास्वं इन्द्रियेविषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः।- तत्त्वार्थाधिगमभाष्य , १.१५ १९९.सामन्नं अणिद्देसं सरूवनामाइकप्पणारहियं ।-विशेषावश्यकभाष्य,२५२ २००. द्रष्टव्य, जैनतर्कभाषा, पृ.७१४एवं नथमल टाटिया, Studies in Jaina Philosophy, p. 36
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