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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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कहकर उसे इन्द्रियों से पृथक् प्रतिपादित किया गया है । ९१ इन्द्रियों एवं मन को पुल (जड़ द्रव्य) से निर्मित होने के कारण क्रमशः द्रव्येन्द्रिय एवं द्रव्य मन कहा गया है तथा चेतनायुक्त होकर जब वे बाह्यार्थ का ज्ञान करते हैं तब उन्हें क्रमशः भावेन्द्रिय एवं भाव मन कहा गया है । परमार्थत : तो आत्मा ही भावमन एवं भावेन्द्रिय है। __ जैन दर्शन की यह मान्यता है कि श्रोत्र,घाण,रसना एवं स्पर्शन ये चार इन्द्रियाँ पदार्थ को प्राप्त कर अर्थात् पदार्थ का संयोग प्राप्त कर पदार्थ का ज्ञान कराती है । इसलिए ये चारों प्राप्यकारी हैं , किन्तु चक्षु इन्द्रिय एवं मन पदार्थ का संयोग प्राप्त किये बिना,पदार्थ से कुछ दूर रहकर उनका ज्ञान कराने में समर्थ हैं , अतः ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। १९२ अनिन्द्रिय-प्रत्यक्ष- जैनदर्शन में अनिन्द्रिय' शब्द का प्रयोग मन के अर्थ में हुआ है १९३ तथा इसे इन्द्रियों से भिन्न एवं निरपेक्ष प्रतिपादित किया गया है ।१९४ न्यायदर्शन में जहां मन आत्मा से संयुक्त होता है एवं इन्द्रियां मन से संयुक्त होती है ,तभी बाह्यार्थ का ज्ञान होता है वहां जैनदर्शन में आत्मा को मात्र मन के द्वारा (इन्द्रियों के बिना) भी बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान करने वाला माना गया है। इन्द्रियों के द्वारा जहाँ अपने अपने विषयों का ज्ञान होता है वहां मन समस्त इन्द्रियों के विषयों को जान सकता है । इन्द्रियों की भांति मन भी पौलिक है, अतः चेतना (आत्मा) के संयोग से ही बाह्य पदार्थों को जानने में समर्थ होता है । उमास्वाति ने मन को श्रुतज्ञान का करण कहा है । १९५ श्रुतज्ञान वहां मति का उपलक्षण है । मति एवं श्रुत दोनों में समस्त पदार्थों का ज्ञान माना गया है । इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने मन को समस्त अर्थों का ग्राहक माना है ।१६ यद्यपि इन्द्रिय प्रत्यक्ष में भी मन इन्द्रियों का सहयोग करता है, किन्तु वह इन्द्रियों के बिना भी आत्मा का करण बन कर बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष करने में समर्थ है । वैसे चक्षु इन्द्रिय की भांति मन को भी जैनदर्शन में अप्राप्यकारी माना गया है।
बौद्ध और जैन दोनों दर्शन मन को व्यापक या परमाणुरूप नहीं मानकर मध्यम परिमाण वाला मानते हैं । विज्ञानवाद के अनुसार मन विज्ञानात्मक है तथा उत्तरवर्ती विज्ञानों का समनन्तर करण रूप १९१. बौद्धदर्शन में मन को इन्द्रियों की श्रेणी में प्रतिपादित किया गया है। डॉ. नथमल टाटिया कहते हैं कि जैनदर्शन में
मन को अनिन्द्रिय कहना संभवतः उतना ही प्राचीन है जितना बौरदर्शन में मन को इन्द्रिय कहना।- Studies in
Jaina Philosophy, p.32 १९२. बौद्धदर्शन में चक्षु एवं मन के साथ श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी माना गया है, यथा - अप्राप्तान्यक्षिमनःश्रोत्राणि
प्रयमन्यथा । अभिधर्मकोश, २.४३ एवं द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण ९५ १९३. अनिन्द्रिय के अतिरिक्त 'नोइन्द्रिय' शब्द पी कहीं कहीं मन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यथा 'सवार्थग्रहणं मनः __ अनिन्द्रियम्' इति 'नोइन्द्रियम्' इति चोच्यते।-प्रमाणमीमांसा वृत्ति, १.१.२४ । नोइन्द्रिय शब्द का प्रयोग आत्मा के
अर्थ में भी हुआ है। नन्दीसूत्र में अवधि आदिज्ञानों को नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा गया है। नन्दीसूत्र, ५ १९४. तस्येन्द्रिनिरपेक्षस्य तज्जनकत्वाभावात् ।-प्रमाणमीमांसावृत्ति, १.१.२१, पृ० १७.२६ १९५. श्रुतमनिन्द्रियस्य ।- तत्त्वार्थसूत्र, २.२२ १९६.सर्वार्थग्रहणं मनः ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.२४
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