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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रत्यक्ष होते हैं । जिस प्रकार अनुमान प्रमाण से जानी गई अग्नि किसी को प्रत्यक्ष भी होती है उसी प्रकार सर्वज्ञ को सूक्ष्म अन्तरित एवं दूरस्थ पदार्थ भी प्रत्यक्ष होते हैं।१८४
मीमांसकों ने सर्वज्ञता का खण्डन किया है । बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने भी बुद्ध को धर्मज्ञ माना है ,सर्वज्ञ नहीं । किन्तु धीरे धीरे बौद्धदर्शन में भी सर्वज्ञता का समावेश हो गया। योगि-प्रत्यक्ष एक प्रकार से अतीन्द्रियज्ञान रूप सर्वज्ञता का ही द्योतक है। (२) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
सर्वप्रथम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इन्द्रिय एवं मन से जन्य ज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा है।१८५ अकलङ्क ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं अनिन्द्रिय (मन) प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है । १८६ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कल्पना लोकव्यवहार को दृष्टिगत रखकर की गयी । १८७ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के स्वरूप एवं भेदों के सम्बन्ध में लगभग समस्त जैन दार्शनिकों ने जिनभद्र एवं अकलर का अनुसरण किया है ।१८ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से होता है १८९ यद्यपि ज्ञान रूप होने के कारण यह भी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा में ही प्रकट होता है ,किन्तु इन्द्रियादि के निमित्त से होने के कारण इसे सांव्यवहारिक कहा जाता है । यह जब इन्द्रिय के निमित्त से होता है तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा मन के द्वारा होने पर अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष-प्रमाण सामान्य की भांति इन्द्रियप्रत्यक्ष भी हित की प्राप्ति एवं अहित के त्याग में समर्थ है । यह अर्थ का सम्पूर्ण ज्ञान कराने वाला नहीं,किन्तु देशतः अर्थात् आंशिक रूप में ज्ञान कराने वाला होता है । अकल देव का इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में यही मन्तव्य है यथा “जो हित की प्राप्ति एवं अहित के त्याग में समर्थ हो,इन्द्रियों से उत्पन्न हो एवं जिससे देशतः अर्थ का ज्ञान होता हो, वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है । १९° यहाँ अकलाने इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की आवश्यक विशेषताओं एवं सीमा का निर्देश किया है । साधारण रूपेण इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला बाह्य अर्थों का प्रत्यक्ष इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है ।
इन्द्रियाँ पाँच हैं-श्रोत्र,चक्षु,प्राण,रसना,एवं स्पर्शन (त्वक्) । जैनदर्शन में मन को अनिन्द्रिय
१८४. सूक्ष्मान्तरितद्राः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ।।-आप्तमीमांसा, ५ १८५. इंदियमणोभवं जंतं संववहारपच्चक्खं ।-विशेषावश्यकभाष्य,९५ १८६. तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् ।- लघीयमयवृत्ति, ४ १८७. केवलं लोकबुद्ध्यैव मतेर्लक्षणसंग्रह।- अकलङ्क, न्यायविनिश्चय, ४७५ १८८.(१) माणिक्यनन्दी, परीक्षामुख, २.५, इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम्।
- (२) हेमचन्द्र, प्रमाणमीमांसा, १.१.२०, इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् । १८९. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।- तत्त्वार्थसूत्र, १.१४ १९०. हिताहितप्राप्तिनिर्मुक्तिक्षममिन्द्रियनिर्मितम्।
यद्देशेतोऽज्ञानं तदिन्द्रियाध्यक्षमुच्यते ।।-न्यायविनिश्चिय,४
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