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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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अधिक विशुद्ध एवं अप्रतिपाती (न गिरने वाला) होता है । १७७ दोनों प्रकार का मनः पर्यय ज्ञान संयत एवं अप्रमत्त मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्राणी को नहीं होता । मनः पर्याय ज्ञान मूर्त मनोद्रव्यगतपर्यायों अथवा तद्गत मूर्त अर्थों को जानता है । अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान केवल ज्ञान में ही होता है । (ग) केवलज्ञान- केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है । इससे बढ़कर कोई भी ज्ञान उत्कृष्ट एवं विशुद्ध नहीं है । मोह,ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्म के क्षय (सम्पूर्ण नाश) से यह ज्ञान प्रकट होता है ।१७८ इसकी प्राप्ति के अनन्तर आत्मा पर किसी भी प्रकार का ज्ञानावरण शेष नहीं रहता । केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् पुरुष को कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ,अतः उसे सर्वज्ञ कहा जाता है । सर्वज्ञ को विश्व के समस्त पदार्थों के तीनों कालों की समस्त पर्यायों का ज्ञान हस्तामलकवत् स्पष्टरूपेण होता रहता है । बाह्यपदार्थों की पर्यायों का ज्ञान कुन्दकुन्द की दृष्टि में व्यवहार दृष्टि से होता है तथा निश्चय दृष्टि से सर्वज्ञ को आत्मा की पर्यायों का ज्ञान होता है ।१८० आचारागसूत्र में सर्वज्ञता के सन्दर्भ में कथन है कि जो एक को जानता है,वह सबको जानता है तथा जो सबको जानता है वह एक को जानता है । १८१ डॉ. नथमल टाटिया ने इसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जैन दर्शन में प्रत्येक पदार्थ अपने अतिरिक्त जगत् के समस्त पदार्थों से किसी न किसी रूप में सम्बद्ध है । उनका सम्बन्ध पर्यायों के रूप में होता है । जब एक पदार्थ का पूर्ण रूप से ज्ञान होता है तो जगत् के अन्य पदार्थों से उसके सम्बन्ध अथवा पर्यायों का भी ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार एक पदार्थ का सम्पूर्ण ज्ञान ही समस्त पदार्थों का पूर्ण ज्ञान है ।१८२ ___ जैन दार्शनिक साहित्य का बहुत बड़ा भाग सर्वज्ञता की पुष्टि में लगा हुआ है । सर्वज्ञता की पुष्टि हेतु मुख्यतः दो तर्क दिये जाते हैं - (1) प्रज्ञा का तारतम्य देखा जाता है ,अतः वह किसी मनुष्य में निरतिशय भी होनी चाहिए अर्थात् पूर्ण होनी चाहिए । प्रज्ञा का पूर्ण होना सर्वज्ञता है । (2) सर्वज्ञ का बाधक कोई प्रमाण नहीं है ।८३ अन्य हेतु भी दिये गये हैं यथा ज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर सर्वज्ञता प्रकट होती है, अत्यन्त अपरोक्ष अर्थ का भी अविसंवादी ज्ञान होता है आदि । आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने प्रतिपादित किया है कि सूक्ष्म ,अन्तरित एवं दूरस्थ पदार्थ भी किसी को
१७७. विशुद्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । - तत्त्वार्थसूत्र, १.२५ १७८. मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।- तत्त्वार्थसूत्र, १०.१ १७९. निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारि स्वरूपं केवलज्ञानम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.२३ १८०. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणादि पस्सदिणियमेण अप्पाणं ।।-नियमसार,१५८ १८१. जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।- आचारांगसूत्र, १.३.४ १८२. Studies in Jaina Philosophy, p. 70 १८३. यथा प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिसद्धिः। बाधकाभावाच्च ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.१६,१७
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