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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा पर समाप्त हो जाय तो उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं । अवस्थित एवं अनवस्थित को क्रमशः अप्रतिपाती एवं प्रतिपाती नाम भी दिए गए हैं । १७० १७१ १७२ . १७३ १७४ (ख) मनः पर्यायज्ञान १६७ - संयम की विशुद्धि से जब मनः पर्यायज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है तो मनः पर्यायज्ञान प्रकट होता है । १९६८ मनः पर्यायज्ञान भी आत्मसापेक्ष है, यह इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं रखता । मनः पर्यायज्ञान के सम्बन्ध में जैनदार्शनिकों में दो मत हैं। प्रथम मत नन्दी सूत्र ६९, आवश्यकनियुक्ति एवं तत्त्वार्थभाष्य पर अवलम्बित है जिसके अनुसार मनः पर्यायज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्त्यमान अर्थों को जाना जाता है । द्वितीय मत विशेषावश्यक भाष्य, नन्दी चूर्णि आदि ग्रंथों पर अवलम्बित है, जिसके अनुसार मनः पर्यव ज्ञान द्वारा मात्र दूसरे के मन की पर्यायों को जाना जाता है तथा उसमें चिन्त्यमान पदार्थों का ज्ञान अनुमान -प्रमाण द्वारा होता है । इनमें से पूज्यपाद अकलङ्क आदि दिगम्बर जैन दार्शनिकों द्वारा मात्र प्रथम मत अपनाया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों में दोनों मत दिखाई देते हैं, किन्तु हेमचन्द्र आदि उत्तरकालीन दार्शनिकों द्वारा द्वितीय मत को महत्त्व दिया गया है। पं. सुखलाल जी का मन्तव्य है कि प्रथम परम्परा में दोषोद्भावन होने के कारण द्वितीय परम्परा का विकास हुआ। वस्तुतः मनः पर्यवज्ञानी दूसरे के मन की पर्यायों को ही जानता है, उसके मन में चिन्त्यमान पदार्थों को तभी जाना जा सकता है जब मन की पर्यायों को जान लिया गया हो। मन की पर्यायों को जानने के अनन्तर यदि चिन्त्यमान पदार्थों को जानता है तो या तो उन्हें अनुमान से जाना जा सकता है, या फिर अवधिज्ञान से। चिन्तन को जानना तथा चिन्त्यमान पदार्थों को जानना भिन्न- भिन्न प्रकार के कार्य हैं । १७५ १७६ मनः पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं— ऋजुमति एवं विपुलमति । इनमें ऋजुमति से विपुलमति ज्ञान १३६ १६७. 'मन : पर्यायज्ञान' शब्द के स्थान पर 'मन:पर्यय' एवं 'मनः पर्यव' शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। १६८. संयमविशुद्धिनिबन्धनाद् विशिष्टावरणविच्छेदाज्जातं मनोद्रव्यपर्यायालम्बनं मन : पर्यायज्ञानम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.२२ १६९. मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्धं गुणपच्चइअं चरितवओ ॥ नन्दीसूत्र, ६५ १७०. अवधिज्ञानविषयस्यानन्तभागं मन : पर्यायज्ञानी जानीते रूपिद्रव्याणि मनोरहस्यविचारगतानि च मानुषक्षेत्रपर्यापन्नानि विशुद्धतराणि चेति । - उमास्वाति, तत्त्वार्थ भाष्य, १.२९ १७१. दव्वमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणन्ते । णावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं ॥ - जिनभद्र, विशेषावश्यक भाष्य, ८१४ १७२. मणियत्वं पुण पच्चक्खं जो पेक्खड़, जेण मणणं मुत्तममुत्तं वा, सो य छउमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खइ त्ति ।-- - नन्दी चूर्णि पू. २४ १७३. परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थऽनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्ष्यते । - - सर्वार्थसिद्धि १.२३, पृ. ८९-९० १७४. परकीयमनोगतार्थज्ञानं मनः पर्ययः । तत्त्वार्थवार्तिक, १.९.४ तथा द्रष्टव्य, तत्त्वार्थवार्तिक, १.२३.२-४ १७५. मनसो द्रव्यरूपस्य पर्यायाशचिन्तनानुगुणाः परिणामभेदास्तद्विषयं ज्ञानं मनः पर्यायः । यद्बाह्यचिन्तनीयार्थज्ञाने तत् आनुमानिकमेव न मनःपर्यायप्रत्यक्षम् । - प्रमाणमीमांसावृत्ति, १.१.१८, पृ० १५ १७६. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ० ३७-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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