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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १३५ मुख्य प्रत्यक्ष कहा है ।१६°वादिदेवसूरि ने मुख्य शब्द के स्थान पर पारमार्थिक शब्द का प्रयोग कर उसे उत्पत्ति में आत्ममात्रापेक्ष बतलाया है । १६१ इस प्रकार जैन दृष्टि का अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि वस्तुतः केवलज्ञान ही मुख्य प्रत्यक्ष है, किन्तु अवधिज्ञान एवं मनःपर्याय ज्ञानों में भी इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं होने के कारण उनको मुख्य प्रत्यक्ष में समाविष्ट कर लिया गया है । अवधिज्ञान एवं मनः पर्यायज्ञान भी इस दृष्टि से तरतम रूप में मुख्यप्रत्यक्ष अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष ही हैं । १६२ इनमें भी केवलज्ञान की भांति बिना इन्द्रियादि की सहायता से सीधे आत्मा से पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है। मुख्य प्रत्यक्ष के भेद - मुख्य प्रत्यक्ष के तीन भेदों का वर्णन मिलता है - (1) अवधिज्ञान,(2) मनः पर्यायज्ञान एवं (3) केवलज्ञान । पूज्यपाद एवं अकलङ्कने इनमें से प्रथम दो ज्ञानों को देश प्रत्यक्ष तथा केवलज्ञान को सर्वप्रत्यक्ष कहा है । १६३वादिदेवसूरि ने देशप्रत्यक्ष के स्थान पर विकल प्रत्यक्ष एवं सर्वप्रत्यक्ष के स्थान पर सकल प्रत्यक्ष शब्दों का प्रयोग किया है ।१६४ अर्थात् वे केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष तथा अवधि एवं मनः पर्यायज्ञानों को विकलप्रत्यक्ष की श्रेणि में रखते हैं । (क) अवधिज्ञान- यह ज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता के बिना आत्मा में अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होता है तथा इसके द्वारा रूपी पदार्थों की विभिन्न पर्यायों का ज्ञान होता है।६५ सीमित क्षेत्र ,काल आदि में मात्र रूपी पदार्थों का ज्ञान कराने के कारण यह मर्यादित अर्थात् अवधिज्ञान है । यह अवधिज्ञान दो प्रकार का है - भवप्रत्यय एवं गुणप्रत्यय । देव एवं नारक जीवों में जन्म से पाये जाने के कारण यह ज्ञान भवप्रत्यय तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्च में साधना आदि के द्वारा प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किये जाने के कारण गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशमनिमित्तक कहा जाता है ।१६६ यह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित एवं अनवस्थित के भेद से छह प्रकार का है । जिस स्थान विशेष पर अवधिज्ञान प्राप्त हुआ है, वह यदि उस स्थान को छोड़ने पर भी ज्ञानी का अनुगमन करे तो उसे अनुगामी अवधिज्ञान कहते हैं और उस स्थान को छोडने पर अवधिज्ञान समाप्त हो जाय तो उसे अनननुगामी अवधिज्ञान कहते हैं । एक बार अवधिज्ञान प्राप्त होने पर निरन्तर बढ़ता जाय उसे वर्धमान अवधिज्ञान तथा घटने पर उसे हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं । यदि अवधिज्ञान प्राप्त होने पर जीवनपर्यन्त बना रहे तो उसे अवस्थित एवं एकबार प्राप्त होने १६०. प्रमाणमीमांसा, वृत्ति, १.१.१५ १६१. पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.१८ १६२. प्रमाणमीमांसा, १.१.१८ १६३. सर्वार्थसिद्धि. १.२० पृ.८८, तत्त्वार्थवार्तिक १.२०.१५, पृ.७८.२५-२६ १६४. तद् विकलं सकलं च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.१९ १६५. अवधिज्ञानावरणविलयविशेषसमुद्भवं भवगुणप्रत्ययं रूपिद्रव्यगोचरमवधिज्ञानम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.२१ १६६. एषोऽवधि : षड्विकल्पः । कुतः अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थिताऽनवस्थितभेदात् । - सर्वार्थसिद्धि १.२२, पृ.८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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