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________________ १३४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रत्यक्ष के भेट उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष - प्रमाण के अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ये तीन भेद प्राप्त होते हैं। ये तीनों भेद आत्ममात्र सापेक्ष हैं। इनमें इन्द्रियादि के सहयोग की अपेक्षा नहीं है, किन्तु प्रत्यक्षज्ञान के नन्दीसूत्र में इन्द्रिय एवं नोइन्द्रिय ये दो भेद किए गए हैं तथा जिनभद्र ने इन्द्रिय- प्रत्यक्ष के साथ अनिन्द्रिय अर्थात् मन के प्रत्यक्ष को भी स्थान देकर दोनों को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है I १५१ १५२ १५५ भट्ट अकलङ्क ने प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किये हैं- (1) मुख्य प्रत्यक्ष एवं (2) संव्यवहार प्रत्यक्ष । कुत्रचित् उन्होंने मुख्य प्रत्यक्ष को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है तथा संव्यवहार प्रत्यक्ष के दो भेद किए हैं—इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । विद्यानन्द ने इन्द्रिय, अनिन्द्रिय एवं अतीन्द्रिय के रूप में प्रत्यक्ष के इन्हीं तीन भेदों का निरूपण किया है । १५३ अकलङ्क के द्वारा किया गया वर्गीकरण ही माणिक्यनन्दी १५४ हेमचन्द्र आदि उत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने अपनाया है । वादिदेवसूरि ने मुख्य प्रत्यक्ष के स्थान पर पारमार्थिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग कर प्रत्यक्ष के द्विविध विभाजन को ही अक्षुण्ण रखा है । १५६ यहाँ पर अकलङ्क के द्वारा किये गये मुख्य एवं संव्यवहार रूप विभाजन को आधार पर बना कर प्रत्यक्ष से सम्बद्ध अन्य विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है । (१) मुख्य प्रत्यक्ष 1 आगमिक सरण में जिसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया, प्रमाण-व्यवस्था युग में वही मुख्य प्रत्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ । मुख्य प्रत्यक्ष में इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती । इसमें ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से सीधा आत्मा द्वारा ज्ञान होता है । भट्ट अकलङ्क ने मुख्य प्रत्यक्ष को अतीन्द्रिय ज्ञान कहा है । १५७ माणिक्यनन्दी ने सामग्री विशेष के कारण उसे समस्त आवरणों से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान माना है । १५८ अकलङ्क देव एवं माणिक्यनन्दी का लक्ष्य संभवतः केवलज्ञान को ही अतीन्द्रिय ज्ञान अथवा मुख्य प्रत्यक्ष के रूप में स्थापित करना है । आचार्य हेमचन्द्र द्वारा दिये गये मुख्य प्रत्यक्ष के लक्षण से भी ऐसा विदित होता है १५९ उन्होंने निःशेष रूप से ज्ञानावरणादि चार घाती कर्मों का क्षय होने पर जो चेतना का प्रकाशक स्वभाव आविर्भूत होता है उसे १५१. मुख्यसंव्यवहारतः । - लघीयस्त्रय, ३ १५२. तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् । मुख्यमतीन्द्रियज्ञानम् । -- लघीयस्त्रयवृत्ति, ४ १५३. तत् त्रिविधम् इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियप्रत्यक्षविकल्पात् :- प्रमाणपरीक्षा, पृ. ३८ १५४. द्रष्टव्य, परीक्षामुख २.५ एवं ११ १५५. द्रष्टव्य, प्रमाणमीमांसा १.१.१५ एवं २० १५६. तद् द्विप्रकारं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकञ्च । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.४ १५७. मुख्यमतीन्द्रियज्ञानम् - लघीयस्त्रयवृत्ति, ४, अकलङ्कमन्यत्रय, पृ. २ १५८. सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् । - परीक्षामुख, २.११ १५९. तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् ।- प्रमाणमीमांसा, १.१.१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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