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प्रत्यक्ष प्रमाण
है । १४४ ज्ञानान्तर के व्यवधान से रहित कहने का आशय यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण किसी अन्य प्रमाण या ज्ञान के आश्रित नहीं होता है ।
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प्रभाचन्द्र ने विशदता में तरतमता का निर्देश किया है । उन्होंने अन्धकार में अस्पष्ट दिखाई देने वाले वृक्ष में भी संस्थान मात्र की विशदता को ज्ञापित कर उसमें प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध किया है तथा वृक्ष के विशेषांश को अनुमान -प्रमाण द्वारा अध्यवसित किया है । १४५ प्रभाचन्द्र कहते हैं कि स्पष्ट ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में तरतमता से पदार्थ का स्पष्ट ज्ञान होने में तरतमता होती है । १४६ आचार्य प्रभाचन्द्र ने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि प्रमाण स्वपर प्रकाशक होता है, अतः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि परोक्षप्रमाणों में भी स्वरूप प्रकाशकता के कारण प्रत्यक्ष का लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है । १४७, किन्तु वे इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि बाह्यार्थ का ज्ञान करने में प्रवृत्त होते समय स्मृत्या प्रमाणों को अन्य प्रत्यक्षादि प्रमाणों पर आश्रित रहना पड़ता है इसलिए वे प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकते ।१४८ प्रभाचन्द्र ने माणिक्यनन्दी के कथन को ही विशदता अथवा अविशदता की कसौटी माना है । तदनुसार प्रमाणान्तर के व्यवधान से रहित ज्ञान विशद है तथा प्रमाणान्तर के व्यवधान से युक्त ज्ञान अविशद है । स्वरूप ग्रहण की अपेक्षा से विशदता या अविशदता का भेद प्रतिपादन प्रभाचन्द्र ने नहीं किया । १४९
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आचार्य हेमचन्द्र ने वैशद्य की दो विशेषताओं का प्रतिपादन किया है - (1) प्रमाणान्तर की अपेक्षा न होना (2) इदन्तया प्रतिभास का होना । १५° प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं होने का कथन माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र का अनुसरण प्रतीन होता है, किन्तु इदन्तया प्रतिभास प्रत्यक्ष में ही होता है, अनुमानादि अन्य ज्ञानों में नहीं । अतः विशदता की यह नयी विशेषता कही जा सकती है । संक्षेप में जैन दर्शन के प्रत्यक्ष-प्रमाण की विशेषताओं का निम्नलिखित बिन्दुओं में समाहार किया जा सकता है
(1) प्रत्यक्ष ज्ञान विशद अथवा स्पष्ट होता है ।
(2) विशदता के कारण वह अन्य प्रमाण पर आश्रित नहीं होता ।
(3) अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणों से वह अर्थ का विशेष प्रकाशन करता है ।
(4) प्रत्यक्ष के द्वारा पदार्थ का इदन्तया प्रतिभास होता है ।
१४४. प्रतीत्यन्तराष्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् । - परीक्षामुख, २.४ १४५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. ५९८-९९
१४६. विशदज्ञानावरणस्य तरतमभावेनैवापगमात् । - प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. ५९९
१४७. ननु च परोक्षेऽपि स्मृतिप्रत्यभिज्ञादिस्वरूपसंवेदनेऽस्याध्यक्षलक्षणस्य सम्भवादतिव्याप्तिरेव । - प्रमेयकमलमार्तण्ड,
भाग-१, पृ. ५९९
१४८. बहिरर्थग्रहणापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षेतरव्यपदेश: - प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. ६०० १४९. तत्र प्रमाणान्तरव्यवधानाव्यवधानसद्भावेन वैशद्येतरसम्भवात् न तु स्वरूपग्रहणापेक्षया, तत्र तदभावात् । - प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. ६००
१५०. प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् । प्रमाणमीमांसा, १.१.१४
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