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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा सम्पान्यविशेषात्मक अर्थ का जानना तथा स्वप्रकाशक या आत्मवेदक होना । 'साकार' विशेषण का प्रयोग भी यद्यपि ज्ञान सामान्य का प्रतिपादक है तथापि इसके द्वारा बौद्ध दर्शन में कल्पित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का निराकरण हो जाता है । अतः प्रत्यक्ष- लक्षण में साकार शब्द का प्रयोग औचित्यपूर्ण है । प्रत्यक्ष के वैशिष्ट्य के प्रतिपादक अन्य दो शब्द हैं- - स्पष्ट एवं अञ्जसा । अकलङ्क के टीकाकार वादिराज ने अञ्जसा पद को स्पष्ट एवं साकार दोनों के विशेषणों के रूप में ग्रहण कर प्रत्यक्ष को आवश्यकरूपेण स्पष्ट १३८ एवं परमार्थतः साकार प्रतिपादित किया है १३९ यद्यपि अकलङ्क अञ्जसा पद को स्पष्ट का विशेषण मानते हैं, ऐसा उनके द्वारा प्रयुक्त अन्य उदाहरणों से ज्ञात होता है । १४० --- १३२ अकलङ्क के द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष- लक्षण की एक ही विशेषता मुख्य रूप से उभर कर आती है और वह यह कि प्रत्यक्ष- प्रमाण प्रमाण होने के साथ विशदज्ञानात्मक होता है। 'साकार' विशेषण का प्रयोग तो परोक्ष -प्रमाण में भी चला जाता है, क्योंकि सामान्यतः सभी ज्ञान साकार होते हैं । यही कारण है कि अकलङ्कोत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है, उसकी अन्य विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया । विशदता - अब प्रश्न उठता है कि विशद किसे कहा जाय । विशदता के सम्बन्ध में लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने विचार किया है। अकलङ्क के अनुसार अनुमान आदि अन्य प्रमाणों की अपेक्षा अधिक प्रकाशकता ही प्रत्यक्ष की विशदता है । १४१ विशदता की यह परिभाषा तुलनात्मक दृष्टिकोण को लिए हुए है, तथा अन्योन्याश्रित दोष से युक्त है। यही नहीं प्रत्यक्ष प्रमाण में भी विशदता का तरतम रूप देखा जाता है । केवलज्ञान सर्वतः विशद है तथा उसकी अपेक्षा मतिज्ञान अविशद है। यह तो निश्चित है कि प्रत्यक्ष-प्रमाण अनुमान की अपेक्षा विशद होता है या अधिक प्रकाशक होता है । इसीलिए विद्यानन्द, वादिदेवसूरि १४२ आदि जैन दार्शनिकों ने अकलङ्क कृत लक्षण को अपनाया है । १४३ विद्यानन्द ने तो विशदज्ञानात्मकता के साथ प्रत्यक्ष की व्याप्ति प्रदर्शित की है तथा अनुमानादि में उसका व्यतिरेक निर्दिष्ट किया है । I माणिक्यनन्दी ने ज्ञानान्तर के व्यवधान से रहित विशेषरूपेण प्रकाशकता को विशदता कहा १३८. प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टमञ्जसा न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० ९८ १३९. ३ असा परमार्थत एव साकारं न कल्पनयेति न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० १०३ पंक्ति २६ १४०. (२) विज्ञानमञ्जसा स्पष्टं विप्रकृष्टे विरुध्यते - न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० ४०७ (२) प्रत्यक्षमञ्जसा स्पष्टमन्यच्छ्रुतमविप्लवम् - न्यायविनिश्चयविवरण, पृ० ४६९ १४१. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् । - लघीयस्त्रय, का. ४ १४२. अनुमानाद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम् । – प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.३ १४३. विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वात् । यत्तु न विशदज्ञानात्मकं तत्र प्रत्यक्षम्, यथाऽनुमानादिज्ञानम् । - प्रमाणपरीक्षा, पृ. ३७ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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