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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १२७ ग्राहक ज्ञान अस्फुटाभ होता है । अतः सविकल्पक होता है, किन्तु योगिज्ञान संकेतकाल में ग्रहण किये गये विषय का ग्रहण नहीं करने से अस्फुटाभ नहीं होता । श्वेरबात्स्की का कथन है कि योगी का प्रत्यक्ष मानसिक ज्ञान है । इसमें इन्द्रियों के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती । इसके प्रत्यक्ष कोटि में आने का मुख्य कारण इसकी स्फुटाभता है।१४ योगिप्रत्यक्ष में कल्पनापोढत्व की सिद्धि हेतु स्फुटाभता को प्रकारान्तर से स्थान दिया गया है। धर्मोत्तर ने 'स्फटाभत्वादेवच निर्विकल्पकम् ११५ कथन से यही स्पष्ट किया है कि स्फुट होने के कारण योगिप्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है । जो ज्ञान विकल्प से युक्त होता है वह स्फुट रूप से अर्थ का अवभासन नहीं करता। ऐसा धर्मकीर्ति का मत रहा है, यथा - न विकल्पानुबद्धस्यास्ति स्फुटावभासिता ।११६ विनीतदेव ने योगी के प्रत्यक्ष में कुछ दिव्यज्ञानों तथा भविष्य द्रष्टत्व आदि की भी गणना की है , किन्तु धर्मोत्तर ने उसे छोड़ दिया है ।११७ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा व्यवहार धर्मकीर्ति ने 'प्रामाण्यं व्यवहारेण ११८ कथन द्वारा प्रमाण को व्यवहाराश्रित प्रतिपादित किया है किन्तु बौद्धेतर दार्शनिकों द्वारा यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा व्यवहार शक्य नहीं है ,क्योंकि जब तक “यह सुख का साधन है,अथवा यह दुःख का साधन है" इसका निश्चय नहीं होता तब तक उसकी प्राप्ति अथवा परिहार के लिए कैसे प्रवृत्त हुआ जा सकता है ।११९ शान्तरक्षित ने इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि निर्विकल्पक ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने में समर्थ होता है, अतः विकल्पोत्पत्ति के द्वारा वह भी व्यवहार का अंग बन जाता है ।१२० आचार्य कमलशील ने शान्तरक्षित के कथन की विस्तृत व्याख्या की है । वे कहते हैं कि निर्विकल्पक भी प्रत्यक्ष सजातीय एवं विजातीय समस्त पदार्थों से व्यावृत्त अग्नि आदि अर्थ को तदाकार रूप उत्पन्न होता हुआ जानता है । वह नियत रूप से व्यवस्थित वस्तु का ग्राहक होता है तथा विजातीय वस्तुओं से व्यावृत्त एवं वस्तु के आकार से अनुगत होने के कारण उस ग्राह्य वस्तु में ही विधि एवं निषेध का आविर्भाव करता है- “ यह अग्नि है, फूलों का स्तबक नहीं । वे विधि एवं निषेध रूप ११४.Buddhist Logic, Vol. II.p.30, FN. 2 ११५. न्यायविन्दुटीका, १.११. पृ०६६ ११६. प्रमाणवार्तिक,२.२८३ $24. Buddhist Logic, Vol. II. p. 33, F.N. 2 ११८. प्रमाणवार्तिक, १.७ ११९. तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका,१३०५, पृ०४७७ १२०. अविकल्पमपि ज्ञानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् । निःशेषव्यवहाराटं तद्वारेण भवत्यतः ।।-तत्त्वसंग्रह, १३०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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