________________
१२६
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
दुःखादि रूप विभिन्न अवस्थाएं चैत्त हैं । चित्त एवं चैत्तों का ज्ञान होना स्वसंवेदन है । जिस रूप से (सुख दुःखादि रूप से) ज्ञान के द्वारा अपना अनुभव किया जाता है उस रूप में ही उसका आत्म-संवेदन रूप प्रत्यक्ष होता है । ___ सांख्य दर्शन में जहाँ प्रकृति के सुख-दुःख-मोहात्मक होने से नीलादि भी सुख-दुःख - मोहात्मक होते हैं वहाँ बौद्ध मत में बाह्य नीलादि पदार्थ सुख-दुःखात्मक नहीं होते,ज्ञान ही सुख-दुःखात्मक होता है । अतःज्ञान के साथ सुख-दुःख का भी स्व संवेदन प्रत्यक्ष होता है । ११° चित्त एवं चैत्तों का ज्ञान रूप अनुभव अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराता है ,साथ ही वह कल्पना रहित एवं अभ्रान्त है, अतः इसे प्रत्यक्ष कहा गया है । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की इन विशेषताओं को प्रमाणवार्तिक के निम्नांकित श्लोकों में इस प्रकार गूंथा गया है
अशक्यसमयो ह्यात्मा रागादीनामनन्यभाक् । तेषामतः स्वसंवित्तिर्नाभिजल्पानुषङ्गिणी ॥
अथात्मरूपं न वेत्ति पररूपस्य वित्कथम् ।-प्रमाणवार्तिक २.२४९ एवं ४४४ अर्थात् यह आत्मा रागादि का अद्वितीय भाजन एवं शब्द संकेत से रहित है इसलिए उसका स्वसंवेदन होता है,किन्तु उसका शब्द से अनुषंग नहीं होता। दूसरी बात यह है कि जो आत्मरूप को नहीं जानता वह परपदार्थों को कैसे जान सकता है। योगिप्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष का एक भेद योगिप्रत्यक्ष है । दिङ्नाग का कथन है कि योगी का ज्ञान गुरु,के निर्देश अथवा आगम की कल्पना से रहित होता है तथा इससे अर्थमात्र का बोध होता है । १११ धर्मकीर्ति के अनुसार यह ज्ञान चार आर्य सत्य आदि यथार्थ अथवा भूतार्थ ११२ का पुनः पुनः चिन्तन करने से उत्पन्न होता है । जब यथार्थ तत्त्वों के चिन्तन का प्रकर्ष हो जाता है तब योगिप्रत्यक्ष ज्ञान प्रकट होता है । ११३ यह विद्यमान वस्तु के समान भाव्यमान वस्तु के स्फुटतर आकार को भासित करता है ।
भूतार्थ की भावना का प्रकर्ष स्फुट आभास के आरम्भ की अवस्था है । प्रकर्ष पर्यन्त अवस्था वाला अभ्रक से व्यवहित पदार्थ के समान पूर्णतःस्पष्ट नहीं जानता है ,किन्तु योगिप्रत्यक्ष वाला मनुष्य भाव्यमान वस्तु का हस्तामलकवत् स्पष्ट दर्शन करता है ।
निश्चय ही योगिज्ञान स्पष्ट आकार वाला होता है अतः निर्विकल्पक है । असन्निहित वस्तु का ११०. सुखादि ज्ञानाकार है इसकी सिद्धि हेतु धर्मकीर्ति ने अनेक युक्तियां दी है । द्रष्टव्य, प्रमाणवार्तिक, २.२६६ एवं २७४ १११. योगिनां गुरुनिर्देशाऽव्यतिभिन्नार्थमात्रदृक् - Dignaga, on perception, संस्कृत टेक्स्ट, ६ ११२. श्चेरबात्स्की भूतार्थ का अर्थ परमार्थसत् (स्वलक्षण) भी करते हैं । द्रष्टव्य, Buddhist Logic, Vol. II, p. 31, ११३. भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्त योगिज्ञानं चेति । -न्यायबिन्दु, १.११
F.N. 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org