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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १२५ इन्द्रिय ज्ञान के विषय(लक्षण) के अनन्तरउत्पन्न द्वितीय क्षण जिसका सहकारी कारण है वह मनोविज्ञान अथवा मानस प्रत्यक्ष है ।२०३ संक्षेपतः धर्मकीर्ति के मत में मानस प्रत्यक्ष की निम्नाङ्कित विशेषताएँ 1. यह इन्द्रिय ज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होता है । 2. इन्द्रियज्ञान के विषय क्षण (स्वलक्षण क्षण) के अनन्तर उत्पन्न सजातीय द्वितीय क्षण इसका विषय बनता है । 3. इन्द्रियविज्ञान तथा द्वितीय-क्षण विषय के द्वारा एक मनोविज्ञान उत्पन्न किया जाता है । अतः ये दोनों परस्पर एक कार्यकारी सहकारी कारण हैं । धर्मोत्तर मानसप्रत्यक्ष को सिद्धान्त होने से स्वीकार करते हैं । अन्यथा उनके मत में मानस-प्रत्यक्ष का साधक प्रमाण नहीं है । १० जितारि ने अपने ग्रंथ हेतुतत्त्वनिर्देश में प्रत्यक्ष के भेदों में मानस-प्रत्यक्ष को नहीं रखा है । १०" इस प्रकार कुछ बौद्ध दार्शनिकों के मत में मानस-प्रत्यक्ष अयुक्त है । शान्तरक्षित, कमलशील आदि दार्शनिकों ने मानस प्रत्यक्ष को योगिज्ञान की श्रेणी में रख दिया है ;१०६ जो धर्मोत्तर के अनुसार उपयुक्त नहीं है,क्योंकि मानसप्रत्यक्ष में इन्द्रिय- प्रत्यक्ष समनन्तर प्रत्यय होता है,जबकि योगिज्ञान में वह आलम्बन प्रत्यय होता है । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष - इसमें बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता ,अपितु समस्त आन्तरिक ज्ञान एवं सुख-दुःखादि का संवेदन होता है । दिइनाग ने स्वसंवेदन को मानस-प्रत्यक्ष का ही पर्याय माना है । ऐसा प्रज्ञाकर गुप्त के प्रमाणवार्तिकभाष्य से भी पुष्ट होता है । प्रज्ञाकरगुप्त ने प्रमाणवार्तिकभाष्य में अनेक स्थानों पर स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का मानस प्रत्यक्ष के रूप में वर्णन किया है।०८ बौद्ध दर्शन में प्रत्येक ज्ञान में स्वसंवेदन होता है ऐसा माना गया है । सुख ,दुःख,राग, द्वेषादि का ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा होता है । धर्मकीर्ति ने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को मानस प्रत्यक्ष से भिन्न माना है तथा इसे परिभाषित करते हुए कहा है -“समस्त चित्त तथा चैत्त पदार्थों का आत्म संवेदन या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है ।१०९ चित्त का अर्थ ज्ञान है जो अर्थ मात्र का ग्राहक होता है तथा चित्त में प्रकट होने वाली सुख १०३. स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम् ।-न्यायबिन्दु. १.९ १०४. एतच्च सिद्धान्तप्रसिद्धं मानसं प्रत्यक्षम् । न त्वस्य प्रसाधकमस्ति प्रमाणम् ।- न्यायबिन्दुटीका, १.९, पृ०६० 104. Dignāga, on perception, p.94 १०६. समस्तवस्तुसम्बद्धतत्त्वाभ्यासबलोद्गतम्। सार्वज्ञं मानसं ज्ञानं मानमेकं प्रकल्प्यते ॥-तत्त्वसङ्ग्रह,३३८० १०७.मानसंचारागादिस्वसंवित्तिरकल्पिका।-Dignaga, on perception,प्रमाणसमुच्चय, ६ १०८(१) मानसमप्यर्थरागादिस्वरूपसंवेदनमकल्पकत्वात् प्रत्यक्षम्।-प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ०३०३ (२) रागद्वेषमोहसुखदुःखादिषु स्वसम्वेदनमिन्द्रियानपेक्षात्वामानसं प्रत्यक्षमिति ।-प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ० ३०५ (३) सुखादानामाप स्वसर्वदन मानस प्रत्यक्षम्।-प्रमाणवातिकभाष्य, पृ०३०७ १०९. सर्वचित्तचैतानामात्मसंवेदनम् ।-न्यायबिन्दु, १.१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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