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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
क्योंकि चाक्षुष ज्ञान द्वारा परमाणु दिखाई नहीं देते हैं ,९६ अतः बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण स्वीकार करते हुए भी आलम्बन के संचित रूप को अथवा अनेक अर्थों (स्वलक्षण परमाणुओं) से जन्य सामान्य स्वलक्षण को प्रत्यक्ष का विषय प्रतिपादित किया गया है। “सञ्चितालम्बनाः पञ्चविज्ञानकाया:" बौद्धों का प्रसिद्ध सिद्धान्त है । दिङ्नाग ने इसे "तत्रानेकार्थजन्यत्वात् स्वार्थे सामान्यगोचरम्” कहकर पुष्ट किया है। अनेक अर्थों अर्थात् स्वलक्षण परमाणुओं से जन्य स्वलक्षण समुदाय का प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञान होता है । दिङ्नाग ने यहां जो सामान्य शब्द का प्रयोग किया है वह समुदाय का बोधक है,नैयायिकादि के सामान्य का नहीं । धर्मकीर्ति कहते हैं कि समुदाय को सञ्चित कहा जाता है तथा वही दिड्नाग द्वारा सामान्य शब्द से कहा गया है।९८ उस सामान्य में ही इन्द्रियज्ञान होता है । धर्मकीर्ति ने यहां एक आशंका प्रस्तुत की है कि सामान्य का ज्ञान होने के कारण यह विकल्पक हो जायेगा तब प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है यह कैसे कहा जा सकता है ? ९९ इस आशंका का निवारण भी स्वयं धर्मकीर्ति ने किया है । वे कहते हैं कि एक परमाणु दृश्य नहीं होता, अनेक परमाणु मिलकर ही ज्ञान उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं, अतः सञ्चित अणुओं को प्रत्यक्ष का विषय समझना चाहिए, किन्तु ये सञ्चित अणु परमाणुओं से पृथक् नहीं है । अतः यहां सामान्य शब्द परमाणुओं से अतिरिक्त का द्योतक नहीं होने के कारण सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता ।१०० मानस प्रत्यक्ष
इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की भांति मानस-प्रत्यक्ष का आलम्बन भी रूपादि विषय है तथा यह भी निर्विकल्पक होता है एवं ज्ञानाकार होकर प्रवृत्त होता है ।१०१ धर्मकीर्ति ने मानसप्रत्यक्ष अथवा मनोविज्ञान का विशिष्ट लक्षण दिया है । यथा इन्द्रिय ज्ञान जिसका समनन्तर कारण है १०२ तथा ९६. न हि प्रत्येकमणवो दृश्याः।-प्रमाणवार्तिक (म.न.) २.१९६, पृ० १५९ ९७.Dignaga, on perception, संस्कृत टेक्स्ट, ४, प्रमाणसमुच्चय, रंगास्वामी अयंगर, में इसे भिन्न रूप में कहा गया
है-'तत्र नेकार्थोत्पादात् स्वार्थसामान्यगोचरः' का.४ ९८. सञ्चितः समुदायः स सामान्यं तत्र चाक्षधीः ।-प्रमाणवार्तिक, २.१९४ ९९. सामान्यबुद्धिश्चावश्यं विकल्पेनानुबध्यते । -प्रमाणवार्तिक ,२.१९४ १००. (i) अर्थान्तराऽभिसम्बन्धाज्जायन्ते येऽणवोऽपरे।
उक्तास्ते सञ्चितास्ते हि निमित्तं ज्ञानजन्मनः ।। अणूनां स विशेषश्च नान्तरेणापरानणून् ।
तदेकानियमाज्ज्ञानमुक्तं सामान्यगोचरम ।। -प्रमाणवार्तिक, २.१९५-९६ (ii) न तु परमाण्वतिरिक्तसामान्यविषयम् , तत् कथं सामान्यविषयत्वात् सविकल्पकत्वप्रसङ्गः ।-प्रमाणवार्तिक,
२.१९६ पर मनोरथनन्दिवृत्ति । १०१. मानसमपि रूपादिविषयालम्बनमविकल्पकमनुभवाकारप्रवृत्तम्।- Dignāga, on perception
प्रमाणसमुच्चय,५ की वृत्ति १०२. बौद्ध दर्शन में ज्ञान के चार प्रत्यय (कारण) माने गये हैं - आलम्बन प्रत्यय, सहकारी प्रत्यय, अधिपति प्रत्यय तथा
समनन्तर प्रत्यय । जब नीलादिका चाक्षष ज्ञान होता है तो उसमें नीलादि आलम्बन प्रत्यय होते हैं,प्रकाशादि सहकारी प्रत्यय होते हैं,चक्ष इन्द्रिय अधिपति प्रत्यय । पूर्वक्षण में उत्पन्न नीलादिका ज्ञान जब उत्तरक्षण के ज्ञान में कारण बनता है तब वह समनन्तर प्रत्यय कहलाता है । यथा मानस ज्ञान में इन्द्रिय ज्ञान समनन्तर प्रत्यय होता है, क्योंकि पूर्वक्षण में इन्द्रियज्ञान एवं उत्तर क्षण में मनोविज्ञान होता है।
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