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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
विकल्प परम्परा से ग्राह्य वस्तु में प्रतिबंधित होते हैं अतः विसंवादी होने पर भी बौद्धों को उनका प्रामाण्य अभीष्ट है ।१२१ शान्तरक्षित कहते हैं कि दृश्य एवं विकल्प का एकत्व अध्यवसाय होने से प्रवृत्ति (व्यवहार) होने के कारण तथा अनधिगत वस्तु का अधिगम होने के कारण विधि-निषेध विकल्प का प्रामाण्य है।
प्रत्यक्ष भी उत्पन्न होकर जिस अंश में अध्यवसाय उत्पन्न करता है उसका वही अंश व्यवहार योग्य गृहीत कहा जाता है । १२ प्रान्ति के कारण समारोप-प्रवृत्ति होने से जिस अंश में प्रत्यक्ष व्यवसाय को उत्पन्न नहीं कर पाता है वह अंश व्यवहार के अयोग्य होने के कारण गृहीत होकर भी अगृहीत ही कहा जाता है । उस अगृहीत अंश में प्रत्यक्ष के अनन्तर उत्पन्न होने वाला प्रत्येक विकल्प प्रमाण नहीं होता, अपितु जिसके द्वारा समारोप का व्यवच्छेद किया जाता है वही विकल्प (अनुमान) प्रमाण होता है , यथा शब्द का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण होने पर भी उसका अनित्यत्व अंश अगृहीत रह जाता है अतः उसका ज्ञान करने के लिये तथा तद्विषयक समारोप का व्यवच्छेद करने के लिए अनुमान प्रमाण प्रवृत्त होता है ।
कमलशील ने यह भी स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि प्रत्यक्ष होते ही रूपादि अर्थ का निश्चय नहीं होता है । उसके निश्चय के लिए अभ्यास अर्थित्व,पाटव आदि कारणों की अपेक्षा होती है । अभ्यास
आदि के कारण ही पिता एवं गुरु के समान होने पर भी पिता को आते हुए देखकर मेरे पिता आ रहे हैं, गुरु नहीं ऐसा निश्चय होता है ।१२३
जैन दर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष-लक्षण
जैनदर्शन में निरूपित प्रत्यक्ष -लक्षण को क्रमिक विकास की दृष्टि से दो धाराओं में रखा जा सकता है-(१) प्राचीन आगमिक धारा एवं (२) प्रमाण-व्यवस्था युगीन धारा । प्राचीन आगमिक धारा के अनुसार इन्द्रिय,मन आदि की सहायता के बिना आत्मा में स्वतः जो ज्ञान प्रकट होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है, इन्द्रियादि की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान है । द्वितीय धारा पर जैनेतर दार्शनिक धाराओं एवं लोकव्यवहार की दृष्टि का प्रभाव है,अतः इस धारा के दार्शनिकों ने इन्द्रिय एवं
१२१. प्रत्यक्षं कलानापोढमपि सजातीयविजातीयव्यावृत्तमनलादिकमर्थ तदाकारनि सोत्पत्तितः परिच्छिन्दद् उत्पद्यते ।
तच्च नियतरूपव्यवस्थितवस्तुग्राहित्वाद् विजातीयव्यावृत्तवस्त्वाकारानुगतत्वाच्च तत्रैव वस्तुनि विधिप्रतिषेधावाविर्मावयति - “अनलोऽयम्, नासी कुसुमस्तबकादिः इति । तयोश्च विकल्पयोः पारम्पयेंण वस्तुनि प्रतिबन्धाद् विसंवादित्वेऽपि नः प्रामाण्यमिष्टमः दृश्यविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायेन प्रवृत्तेरनधिगतवस्तुरूपाधिगमाभावात् । -तत्त्वसंग्रह
पलिका, १३०५, पृ० ४७७ १२२. प्रत्यक्षमुत्पन्नमपि यत्रांशेऽध्यवसायं जनयति सएवांशो व्यवहारयोग्यो गृहीत इत्यभिधीयते । तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका,
पृ० ४७८ १२३. न झनुभूत इत्येव निश्चयो भवति, तस्याभ्यासाधित्वपाटवादिकारणान्तरापेक्षत्वात् । यथा जनकाध्यापका ऽविशेषे ऽपि
पितरमायान्तं दृष्ट्वा 'पिता मे आगच्छति, नोपाध्यायः' इति निधिनोति ।-तत्त्वसङ्ग्रहपज्जिका, १०४७८
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