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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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प्रत्यक्षाभास
आचार्य दिइनाग ने चार प्रकार के प्रत्यक्षाभास का निरूपण किया है, ७५ यथा-श्रान्ति, संवृतिसत्ज्ञान, अनुमानानुमानिक एवं सतैमिर । (1) प्रान्ति-यथा मरू-मरीचिका में जलादि की कल्पना (2) संवृतिसत् ज्ञान- स्वलक्षण रूप परमार्थसत् में अर्थान्तर का आरोप कर उसके स्वरूप
की कल्पना करना (3) अनुमानानुमानिक ज्ञान-यथा पूर्वदृष्ट में एकत्व की कल्पना करने से लिङ्गानुमेयादि का ज्ञान । स्मृतिज्ञान, शाब्दज्ञान आदि का भी इसमें समावेश हो सकता है ।(4) सतैमिर - कमलशील ने तिमिर शब्द को अज्ञान का पर्याय माना है तथा अज्ञान में होने वाले विसंवादक ज्ञान को सतैमिर कहा है । ६ जिनेन्द्रबुद्धिने इन्द्रिय के उपधात से उत्पन्न ज्ञान को तिमिरादि ज्ञान कहा है, किन्तु मसाकी हतौडी के अनुसार जिनेद्रबुद्धि पर धर्मकीर्ति का प्रभाव लक्षित होता है,
“क्योंकि पूर्ववर्ती धर्मकीर्ति ने स्पष्टरूपेण आश्रयोपप्लव (इन्द्रियोपघात) से उत्पन्न ज्ञान को सौमिर प्रत्यक्षाभास कहा है।७९
धर्मकीर्ति ने इन चार प्रत्यक्षाभासों में से प्रथम तीन को कल्पनाज्ञान माना है तथा चतुर्थ को अविकल्पक प्रत्यक्षाभास के रूप में निरूपित किया है। ° दिइनाग ने प्रथम तीन कल्पना ज्ञानों की ही व्याख्या की है.अन्तिम सतैमिर की नहीं । अतःमसाकी हतौड़ी का मत है कि दिङ्नाग को तीन ही प्रकार के प्रत्यक्षाभास अभीष्ट थे। तीन प्रकार के प्रत्यक्षाभास का आधार वे वादविधि को मानते हैं,जहां भ्रान्तिज्ञान,संवृतिज्ञान एवं अनुमान ज्ञान का निरूपण है । मसाकी हतौडी का कथन है कि दिइनाग ने सतैमिर शब्द को प्रत्यक्षाभास का विशेषण बनाया है । उसे पृथक् प्रत्यक्षाभास के रूप में निरूपित नहीं किया।८२
दिइनाग ने न्यायदर्शन के प्रत्यक्षलक्षण में स्थित अव्यभिचारि पद को अनावश्यक सिद्ध किया है,क्योंकि इन्द्रिय एवं अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान उनके मत में व्यभिचार रहित ही होता है। दिइनाग का यह कथन इस बात को मानने के लिए बाध्य करता है कि उन्हें मानस प्रान्ति ही ७५. प्रान्तिः संवृतिसज्जानमनुमानानुमानिकम् । ___ स्मार्ताभिलाषिकशेति प्रत्यक्षाभं समिरम्॥-प्रमाणसमुच्चय, १.८ ।। ७६. सतमिरमिति तु तिमिरशब्दोऽयमज्ञानपर्याय : । 'तिमिरनं च मन्दानामिति यथा । तिमिरे भवं तैमिरं विसंवा
दकमित्यर्थः । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, पृ. ४८३ ७७. Dignaga, on perception, p. 95.36 ७८.bid, p.96 ७९. आश्रयोपप्लवोद्भवम् ।-प्रमाणवार्तिक, २.२८८ ८०. त्रिविध कल्पनाज्ञानमात्रयोपप्लवोद्भवम् । ___ अविकल्पकमेकं च प्रत्यक्षाभं चतुर्विधम्॥-प्रमाणवार्तिक २.२८८ ८१. Dignaga, onperception, p.95.41 ८२. Ibid, p.96.3 ८३. इन्द्रियार्थसन्निकषात्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।-न्यायसूत्र , १.१.४
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