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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
में लेते हैं तो प्रत्यक्ष-लक्षण योगाचार मत में घटित नहीं होता है। क्योंकि योगाचार मत में आलम्बन आदि असिद्ध है। अविसंवादी अर्थ में प्रत्यक्ष-लक्षण सौत्रान्तिक के साथ योगाचार मत में भी घटित है । ६९ इस प्रकार कमलशील ने 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् ' प्रत्यक्ष लक्षण को अभ्रान्त पद का अविसंवादी अर्थ करके विज्ञानवाद एवं बाह्यार्थवाद दोनों में घटित किया है।
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कमलशील का कथन है कि इन्द्रिय- प्रत्यक्ष में जो भ्रान्ति होती है वह मनोजन्य नहीं होती । मनोजन्य भ्रान्ति मानस - प्रत्यक्ष में होती है, यथा स्वप्नज्ञान स्पष्ट प्रतिभासित होने के कारण निर्विकल्पक होता है, किन्तु अभ्रान्त नहीं होता । अतः मानस- प्रत्यक्ष में होने वाली भ्रान्ति का निराकरण भी अभ्रान्त पद से होता है । किन्तु इन्द्रियजन्य भ्रान्ति भी संभव है। इन्द्रियों में विकार होने पर या उनके उपहत होने पर इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में भ्रान्ति हो सकती है। केशोण्डूक आदि के ज्ञान में इन्द्रियज भ्रान्ति ही है।७१ मनोभ्रान्ति तो उसका कारण निवृत्त होने पर निवृत्त हो जाती है । यथा रज्जु में सर्प की भ्रान्ति उसका प्रत्यक्ष होने पर निवृत्त हो जाती है, किन्तु इन्द्रियजन्य भ्रान्ति ऐन्द्रियक विकार का निवारण न हो तब तक बनी ही रहती है। ७२
आधुनिक विद्वानों का मत - धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष-लक्षण में प्रयुक्त 'अभ्रान्त' पद के सम्बन्ध
सातकड़ि मुकर्जी का मत है कि धर्मकीर्ति द्वारा अभ्रान्त पद का प्रयोग अनावश्यक रूप से किया गया है तथा प्रत्यक्ष का दिङ्नागीय लक्षण पर्याप्त है । ३ श्वेरबात्स्की स्पष्टरूपेण अपना कोई मत नही देते हैं, किन्तु अभ्रान्त का अविसंवाद अर्थ ग्रहण करने पर वे उसे अनावश्यक मानते हुए प्रतीत होते हैं । ७४
प्रत्यक्ष-लक्षण में 'अभ्रान्त' पद के सन्निवेश के औचित्य अथवा अनौचित्य का निर्णय करने के लिए प्रत्यक्षाभास को भी समझना आवश्यक है। इसलिए अब प्रत्यक्षाभास की चर्चा को जा रही है ।
६९. अभ्रान्तमत्राविसंवादित्वेन द्रष्टव्यम् । न तु यथाऽवस्थितालम्बनाकारतया । अन्यथा हि योगाचारमतेनालम्बनासिद्धेरुभयनयसमाश्रयेणेष्टस्य प्रत्यक्षलक्षणस्याऽव्यापिता स्यात् । -- तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, १३११, पृ. ४७९
७०. मानसस्यापि योगिज्ञानादे:, तत्र च स्वप्नान्तिकस्यापि निर्विकल्पकत्वमस्ति स्पष्टप्रतिभासित्वात् । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका
१३११, पृ. ४८०.१३-१४
७१. इन्द्रियजेयं केशोण्ड्रकादिबुद्धि: । - तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, १३११, पृ. ४८०.१८
७२. (i) यदि मनोभ्रान्तिः स्यात् ततो मनो भ्रान्तेरेव कारणान्निवर्तेताऽ निवृत्तेऽप्यक्षविप्लवे । सर्पादि भ्रान्तिवदिति दृष्टान्तः । - तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, १३११, पृ. ४८०.१९.२०
(ii) शान्तरक्षित सर्पादिभ्रान्तिवच्चेदमनष्टेऽप्यक्षविप्लवे ।
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निवर्तेत मनोभ्रान्तेः स्पष्टं च प्रतिभासनात् ॥ तत्त्वसंग्रह, १३१३
93. It has become perfectly clear that Dignaga's definition of perception is complete and sufficient by itself. The addition of the adjective 'abhrant' has no logical necessity or justification. - The Buddhist Philosophy of Universal flux, p.280
७४. Buddhist Logic, Vol. 2, p.18
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