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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण ११९ अप्रान्त होना है। __ वे कहते हैं कि चलते हुए वृक्ष का दिखाई देना आदि ज्ञान प्रान्त होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता।६५ यद्यपि यह ज्ञान कल्पना से रहित होने के कारण निर्विकल्पक है तथा वृक्ष मात्र की प्राप्ति होने के कारण अविसंवादक भी है,तथापि वृक्ष चलते हुए रूप में प्राप्त नहीं होता है इसलिए उसका चलते हुए दिखाई देना भ्रान्त ज्ञान है ,अतः यह प्रत्यक्ष नहीं,अपितु मिथ्याज्ञान है । यदि कोई शंका करे कि वृक्ष की प्राप्ति होने पर भी इस ज्ञान को प्रान्त कैसे कहा जा सकता है,तो धर्मोत्तर उसका तत्परता से समाधान करते हैं कि द्रष्टा को नानादेशगामी वृक्ष दिखाई देता है,जबकि उसे प्राप्ति एकदेश में स्थित वृक्ष की होती है । जिस देश या स्थान में वृक्ष दिखाई देता है उस स्थान में उस वृक्ष की प्राप्ति नहीं होती तथा जिस स्थान में वृक्ष दिखाई नहीं देता उस स्थान में वृक्ष की प्राप्ति होती है, अतः इस ज्ञान से वस्तुतः किसी अर्थ की प्राप्ति नहीं होती है; ज्ञानान्तर से ही वृक्षादि अर्थ प्राप्त होता है । इस प्रकार धर्मोत्तर प्रान्त ज्ञान की निवृत्ति के लिये प्रत्यक्ष -लक्षण में अभ्रान्त' पद को आवश्यक मानते हैं तथा अर्थक्रिया में समर्थ ग्राह्य वस्तु के ज्ञान को ही अभ्रान्त की संज्ञा देते हैं। धर्मोत्तर यद्यपि अभ्रान्त पद का अर्थ अविसंवादकता से भिन्न रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं किन्तु उनकी अभ्रान्तता अविसंवादकता से आत्यन्तिक रूपेण पृथक् नहीं हो पायी है । अर्थक्रिया में समर्थ ग्राह्य वस्तु का अविपरीत ज्ञान एक प्रकार से अविसंवादक ज्ञान ही है । हां,एक अन्तर अवश्य प्रतीत होता है,वह यह कि धर्मोत्तर अनुमान को प्रान्त ज्ञान मानने पर भी उसे अर्थ का अध्यवसायक होने के कारण सम्यग्ज्ञान अथवा प्रमाण मानते हैं, किन्तु प्रत्यक्ष में वे ग्राह्य वस्तु के अविपरीत ग्रहण पर बल देते हैं । अर्थक्रिया में समर्थ ग्राह्य का अविपरीत ग्रहण प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए आवश्यक है। स्थिर वस्तु का स्थिर रूप में ग्रहण होना एवं गतिशील वस्तु का गतिशील रूप में ग्रहण होना प्रत्यक्ष की अप्रान्तता है। शान्तरक्षित एवं कमलशील- शान्तरक्षित एवं कमलशील ने धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष-लक्षण का समर्थन किया है अतः वे कल्पनापोढ के साथ अभ्रान्तपद का सन्निवेश भी आवश्यक मानते हैं।६७ शान्तरक्षित ने प्रतिपादित किया है कि यदि 'अप्रान्त' पद का ग्रहण नहीं किया जाय तो केशोण्डुक आदि का ज्ञान भी निर्विकल्पक होने से प्रत्यक्ष की श्रेणी में आता है। ६८ कमलशील कहते हैं कि अभ्रान्त का अर्थ यहां अविसंवादी है । यदि अभ्रान्त का अर्थ यथावस्थित आलम्बन आदि के आकार ६५. न्यायबिन्दुटीका १.४, पृ. ३६-३८ ६६. प्रान्तं हनुमानं स्वप्रतिभासेऽनऽध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यक्षं तु ग्राह्ये रूपे न विपर्यस्तम् । न्यायबिन्दुटीका, १.४, पृ. ४० ६७. प्रत्यक्ष कल्पनापोढमप्रान्तम् । - तत्त्वसंग्रह १२१३ एवं पञ्जिका ६८. केशोण्डकादिविज्ञाननिवृत्त्यर्थमिदं कृतम् । अप्रान्तग्रहणं तद्धि प्रान्तत्वान्नेष्यते प्रमा ।।-तत्वसंग्रह १३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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