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________________ ११८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा कल्पनारहित ज्ञान में भ्रम उत्पन्न नहीं हो,वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। धर्मकीर्ति यहां तिमिरादि-जन्य प्रमों का उल्लेख करना चाहते है, किन्तु उनके टीकाकार धर्मोत्तर ने इन समस्त भ्रमों को ऐन्द्रियक विकार उत्पन्न करने वाला माना है।५६ उनका कथन है कि इन्द्रिय के विकृत हुए बिना इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में प्रान्ति संभव नहीं है।५७ धर्मकीर्ति द्वारा कहे गये इन प्रमकारणों को धर्मोत्तर ने चार भागों में विभक्त किया है,यथा इन्द्रियगत, विषयगत, बाह्याश्रयगत एवं आध्यात्मिक आश्रयगत।“तिमिर रोग से नेत्रों में विकार उत्पन्न होने के कारण जो प्रान्ति होती है वह इन्द्रियगत प्रान्ति का उदाहरण है । अलात आदि के शीघ्र घूमने के कारण उसमें चक्र के दिखाई देने की जो भ्रान्ति उत्पन्न होती है वह विषयगत भ्रान्ति का कारण है । चलती हुई नाव में बैठे व्यक्ति को बाह्य वृक्षादि के चलने का जो भ्रम होता है वह बाह्याश्रय गत भ्रान्ति का उदाहरण है । वात,पित्त एवं कफ के संक्षोभ (प्रकोप) के कारण जलते हुए स्तम्भ आदि की जो भ्रान्ति होती है वह आभ्यन्तर भ्रान्ति का उदाहरण है। इन प्रान्तियों का वर्गीकरण कर लेने के पश्चात् भी धर्मोत्तर इस बात पर दृढ़ हैं कि इन समस्त प्रान्तियों का कारण इन्द्रिय में ही उत्पन्न विकार है । इन्द्रिय के विकृत होने से ही ये भ्रान्तियां होती हैं । इन भ्रान्तियों में धर्मोत्तर ने और भी उदाहरण जोड़ दिये हैं ,यथा पीलिया के रोगी को समस्त वस्तुएं पीली दिखने का भ्रम ,अलात या मशाल के शीघ्र लाने एवं ले जाने से अग्निवर्ण के दण्डभास की प्रान्ति आदि।११ धर्मोत्तर ने यह स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि धर्मकीर्तीय प्रत्यक्ष-लक्षण में अभ्रान्त' पद का अर्थ अविसंवादक नहीं है । अविसंवादकता तो प्रत्यक्ष के सम्यग्ज्ञान रूप होने के कारण उसमें स्वतःप्राप्त है । अतः प्रत्यक्ष-लक्षण में अविसंवादकता का पुनः कथन करना निष्पयोजन है। विनीतदेव कमलशील ६२आदि बौद्ध नैयायिकों ने अप्रान्त का अर्थ अविसंवादक कियाहै,जो धर्मोत्तर के तर्क से खण्डित हो जाता है। धर्मोत्तर ने अभ्रान्त का अर्थ करते हुए कहा है कि जो ज्ञान अर्थात्रया में समर्थ ग्राह्य वस्तु स्वरूप से अविपरीत होता है उसे अप्रान्त ज्ञान समझना चाहिए।६३ सन्निवेश उपाधि से युक्त परमाणुसंघात ही अर्थक्रिया में समर्थ वस्तु होती है। उस वस्तु के ज्ञान में भ्रम नहीं होना ही ५५. तया रहितं तिमिराशुभ्रमणनीयानसंक्षोभाद्यनाहितविप्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।-न्यायबिन्दु, १.६ ५६. सर्वेरेव च विधमकारणैरिन्द्रियविषयबाह्याध्यात्मिकायगतैरिन्द्रियमेव विकर्तव्यम् । न्यायबिन्दुटीका, १.६ पृ. ५३ ५७. अविकृते इन्द्रिये इन्द्रियप्रान्त्ययोगात् ।-न्यायविन्दुटीका, पृ.५३ ५८. द्रष्टव्य, उपरि पादटिप्पण, ५६ एवं न्यायबिन्दुटीका, पृ. ५२ ५९. न्यायबिन्दुटीका १.६, पृ.५३-५४ ६०.न तु अविसंवादकमप्रान्तमिह गृहीतव्यम् । यत: सम्यग्ज्ञानमेव प्रत्यक्षं नान्यत् । तत्र सम्यग्ज्ञानत्वादेवाऽविसंवादकत्वे लब्धे पुनरविसंवादकग्रहणं निष्प्रयोजनमेव ।-न्यायबिन्दुटीका, १.४, पृ.४१ ६१. अप्रान्तमिति यद्विसंवादि न भवति ।- न्यायबिन्दुटीका, पृ. ३७ पर उद्धृत ६२. अभ्रान्तमत्राविसंवादित्वेन द्रष्टव्यम् ।-तत्त्वसंग्रहपज्जिका,१३११,पृ.४७५ ६३. तस्माद् ग्राह्येऽर्थक्रियाक्षमे वस्तुरूपे यद् अविपर्यस्तं तदप्रान्तमिह वेदितव्यम् ।-न्यायबिन्दुटीका, १.४, पृ. ४१ ६४. अर्थक्रियाक्षमं च वस्तुरूपं सन्निवेशोपाधिवर्णात्मकम् ।-न्यायबिन्दुटीका, १.४, पृ. ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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