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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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प्राप्त नहीं होता, अपितु श्वेत शंख प्राप्त होता है, उल्लेखनीय है कि प्रज्ञाकरगुप्त ने शंख रूप में उस ज्ञान को अविसंवादी माना है तथा पीतज्ञान को विसंवादी माना है।
प्रमाणसमुच्चय में दिइनाग ने प्रतिपादित किया है कि भ्रान्ति सदा मानसिक होती है,ऐन्द्रियक नहीं । प्रत्यक्षाभास को वे कल्पनाजन्य मानते हैं।५° श्वेरबात्स्की ने प्रतिपादित किया है कि तीन कारणों से दिइनाग ने प्रत्यक्ष- लक्षण में अभ्रान्त' पद का प्रयोग नहीं किया-(१) भ्रान्ति कल्पनाजन्य होती है,क्योंकि वह निर्णयात्मक होती है जबकि प्रत्यक्ष सदैव कल्पना रहित होता है । अत: उसमें अप्रान्त पद के प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। (२) दिइनाग अपने प्रत्यक्ष-लक्षण को बाह्यार्थवाद एवं विज्ञानवाद दोनों के अनुकूल बनाना चाहते थे। अप्रान्त पद का प्रयोग करने पर यह लक्षण विज्ञानवाद में संगत नहीं रहता है । क्योंकि उसमें सभी आलम्बन प्रान्त होते हैं । (३) 'अप्रान्त' पद के अनेक अर्थ लगाये जा सकते थे । अतः इस पद का प्रयोग प्रत्यक्ष-लक्षण के लिए घातक सिद्ध होता।५१ धर्मकीर्ति-धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्षाभास में निर्विकल्पक प्रान्ति को इन्द्रिय जन्य माना है।५२ उनके मत में इन्द्रिय में विकार उत्पन्न होने के कारण इन्द्रियजन्य प्रान्ति उत्पन्न होती है । प्रान्ति को मात्र मनोजन्य मानने का वे खण्डन करते हैं तथा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि भ्रान्ति इन्द्रिय के विकार के कारण होती है,५३ यथा एक चन्द्र में दो चन्द्रों की प्रान्ति इन्द्रियजन्य है। यदि द्विचन्द्र ज्ञान में मानसी प्रान्ति होती तो जिस प्रकार रज्जु आदि में संस्थानसाम्य से उत्पन्न सर्पादि की प्रान्ति का निराकरण उसका प्रत्यक्ष होने पर हो जाता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष द्वारा अक्षविकार रहते हुए भी द्विचन्द्र प्रान्ति का निराकरण हो जाना चाहिए, किन्तु इन्द्रियविकार के रहते हुए द्विचन्द्र भ्रान्ति का निराकरण नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि द्विचन्द्र प्रान्ति इन्द्रियविकार जन्य है। ५४ इस प्रकार की प्रान्ति का निराकरण करने के लिए ही धर्मकीर्ति ने निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अप्रान्त' पद का संयोजन किया है।
न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति कहते हैं कि तिमिर, आशुभ्रमण, नौयान, संक्षोभ आदि से जिस ४८. तत्राध्यवसिताकारप्रतिरूपा न विद्यते । तत्राप्यर्थक्रियावाप्तिरन्यथाऽतिप्रसज्यते ॥-तत्वसंग्रह, १३२४ तत्रेहन यथाप्रतिभासमविसंवाद : पीतस्य प्रतिभासनात् तस्य तथा भूतस्याप्राप्ते: । नापि यचाध्यवसायमविसंवाद: पीतस्यैव, विशिष्टार्थक्रियाकारित्वेनाध्यवसायातूनच तद्रपार्थक्रियाप्राप्तिरस्ति । -तत्वसंग्रहपञ्जिका, १३२४, पृ.
४८३ ४९. प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ.५ ५०. इसकी चर्चा प्रत्यक्षाभास में की गयी है। द्रष्टव्य, पृ. १२१ एवं पादटिप्पण, ७५ ५१. Buddhist Logic, Vol. I, pp.155-157 ५२. प्रमाणवार्तिक, २.२८८ ५३. प्रमाणवार्तिक, २.२९४ ५४. सादिप्रान्तिवच्चास्या:स्थादक्षविकृतावपि । निवृत्तिन निवतेत निवृत्तेऽप्यक्षविप्लवे ॥-प्रमाणवार्तिक, २.२९७
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