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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
(इति कर्तव्यता) में बालक भी चतुर होता है अतः उसमें भी कल्पना का अनुमान होता है।४२
शान्तरक्षित एवं कमलशील ने दिङ्नाग निरूपित कल्पना स्वरूप की भी चर्चा की है । नाम. जाति, गुण, क्रिया एवं द्रव्य रूप पांच कल्पनाओं में ये दोनों दार्शनिक नाम कल्पना को प्रमुख मानते हैं। जात्यादि का वास्तविक अस्तित्व नहीं होने से उन्हें ये हेय प्रतिपादित करते हैं।४३ जात्यादि को यदि कल्पना मानकर उनका कथन किया जाय तो भी नामयोजना करनी पड़ती है। " कमलशील ने 'उच्यते' शब्द पर बल दिया है तथा नामयोजना से ही उसे सार्थक माना है। यथा- 'जात्या विशिष्टोऽर्थ उच्यते गौः' इत्यादि वाक्यों में जो 'उच्यते' पद है वह नाम अथवा शब्द योजना की ओर संकेत करता है।४५ 'अभ्रान्त' पद के प्रयोग पर मत-भेद दिड्नाग - असंग ने प्रत्यक्ष-लक्षण में अभ्रान्त' पद का ग्रहण किया था।४६ किन्तु दिङ्नाग ने उसे अपने लक्षण में स्थान नहीं दिया । शान्तरक्षित एवं कमलशील ने तत्त्वसङ्ग्रह एवं उसकी पञ्जिका में दिइनाग द्वारा अभ्रान्त पद का सन्निवेश नहीं करने का कारण दिया है।४७ वे कहते हैं कि पीतशंखादि का भ्रान्त ज्ञान भी दिइनाग मत में प्रत्यक्ष है । शान्तरक्षित ने कहा है कि श्वेत शंख के स्थान पर पीतशंख का ज्ञान भ्रमरूप है तथापि अर्थक्रिया के अविसंवादी होने से दिड्नागमत में उसकी प्रमाणता है ।कमलशील कहते हैं पीतशंख ज्ञान लिङ्गजन्य नहीं है ,अतः उसे अनुमान नहीं कहा जा सकता तथा शंख रूप में अविसंवादी होने से उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता।
दिङ्नाग के इस मत का शान्तरक्षित एवं कमलशील दोनों ने खण्डन किया है। उनका कहना है पीतशंख ज्ञान अविसंवादी नहीं है ,क्योंकि पीत का प्रतिभास अथवा अध्यवसाय होने पर पीत शंख ४२. इतिकर्तव्यतायां स्मितरुदितस्तनपानप्रहर्षादिलक्षणायां पटुः चतुरो भवति, अतोऽनया कार्यभूतया यथोक्ता कल्पना
बालस्याप्यनुमीयत एव ।- तत्त्वसंग्रहपंजिका, १२१५ वाक्यपदीय में भी इसी प्रकार कहा गया है, कमलशील ने इसे उद्धत किया हैइतिकर्तव्यता लोके सर्वा शब्दव्यपाश्रया।
यां पूर्वाहितसंस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते ॥वाक्यपदीय,१.१२१ ४३. तत्र हेया जात्यादियोजना परप्रसिद्धकल्पना । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका,१२२० पृ.४५१ ४४. जात्यादियोजना शब्दयोजनाऽव्यभिचारिणी ।- तत्त्वसंग्रह, १२३२ ४५. शब्दयोजनया सर्वा योजना व्याप्ता । अत एव चाचार्गीयम् 'जात्या विशिष्टो उच्यते गौः' इत्यादिषु यद् 'उच्यते ' इति वचन तत् सफलं भवेत् । अन्यथा विना नाम्ना कथम् 'उच्यते' इति स्यात् अभिधानक्रियायाः शब्दधर्मत्वात् ।
-तत्वसंग्रहपंजिका,पृ.४५५।। ४६. Buddhist Logic, Vol. 1,p. 155 ४७. पीतशंखादिबुद्धीनां विप्रमेऽपि प्रमाणता ।
अर्थक्रियाऽविसंवादादपरे सम्प्रचक्षते।।।-तत्त्वसंग्रह,१३२३ केचित्त स्वयूथ्या एवाभ्रान्तग्रहणं नेच्छन्ति ; भ्रान्तस्यापि पीतशंखादिज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वात् । तथाहि - न तदनुमानम् ; अलिङ्गजत्वात् । प्रमाणंच अविसंवादित्वात् । अत एवाचार्यदिङ्नागेन लक्षणे न कृतमभ्रान्तग्रहणम् - तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, १३२३, पृ.४८२
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