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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण अर्थ “वाचक शब्द के संसर्ग की योग्यता” समझा जाय तो श्रोत्रज्ञान के सविकल्पक होने की आपत्ति आती है । इस शंका का स्वयं धर्मोत्तर समाधान करते हुए कहते हैं कि शब्द स्वलक्षण में वाच्य-वाचक भाव मानने पर भी संकेत काल में जाने गये (तरप् तमप को “घ” कहते हैं इत्यादि रूप में ) शब्दों का स्मरण न हो तब तक यह ज्ञान सविकल्पक नहीं होता। दूसरी बात यह है कि संकेत काल में जाना गया शब्द स्वलक्षण इस समय नहीं है अतः पूर्वकाल में देखे गये संकेत को नहीं देखता हुआ श्रोत्रज्ञान वाच्य-वाचक भाव का ग्रहण नहीं करता है ।३५ संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्रोत्रज्ञान का विषय शब्द स्वलक्षण है । पूर्वगृहीत संकेतों का यदि विद्यमान शब्द स्वलक्षण में ग्रहण नहीं होता है तो उससे होने वाला श्रोत्रज्ञान भी निर्विकल्पक ही होता है। योगिज्ञान में तो एक साथ समस्त शब्दों एवं उनके अर्थों का ज्ञान होता है, अतः योगि-ज्ञान के भी सविकल्पक होने का प्रसंग आता है,किन्तु धर्मोत्तर के अनुसार यहां भी श्रोत्रज्ञान वाली युक्ति से ही समाधान होता है।३६ युक्ति है - जो ज्ञान गृह्यमाण वस्तु का संकेत काल में देखे गये रूप से ग्रहण नही करता,वह वाच्य-वाचक भाव का ग्राहक नहीं होता। ३७ वाच्यवाचकभाव के अभाव में जो प्रत्यक्ष होता है वह निर्विकल्पक होता है। प्रज्ञाकरगुप्त ने विशेषण आदि के सम्बन्ध से युक्त वस्तु के प्रतिभास की प्रतीति को कल्पना कहा है।३८ शान्तरक्षित एवं कमलशील के मत में कल्पना शान्तरक्षित एवं कमलशील ने यद्यपि अभिलापिनी प्रतीति को कल्पना कहा है३९ तथापि वे धर्मकीर्तीय कल्पना के स्वरूप से सहमत प्रतीत होते हैं। धर्मकीर्ति की भांति वे भी शब्द के प्रयोग के बिना भी शब्दार्थ-घटना के योग्य प्रतीति को कल्पना मानते हैं। शान्तरक्षित कहते हैं- सद्योजात बालक में अतीत जन्म की शब्दार्थाभ्यास रूप वासना का अन्वय रहता है अत:उसमें भी अभिलापिनी प्रतीति होती है। कमलशील ने कहा है कि हंसना,रोना,स्तनपान करना,प्रसन्न होना आदि कार्यों ३५. ततः पूर्वकालदृष्टत्वमपश्यच्छोत्रज्ञानं न वाच्यवाचकभावग्राहि ।- न्यायबिन्दुटीका, १.५, पृ०५० ३६. अनेमैव न्यायेन योगिज्ञानमपि। न्यायविन्दटीका. प०५० ३७. इस युक्ति का उल्लेख दुवेंक मित्र ने किया है - यज्ञानं संकेतकालविषयत्वं गृह्यमाणस्य न गृह्णाति, न तद् ___ वाच्यवाचकभावग्राहि ।- धर्मोत्तरप्रदीप, पृ० ५४ ।। ३८. विशेषणादिसम्बन्धवस्तुप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना ।- प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ० २४५ ३९. अभिलापिनी प्रतीतिः कल्पना ।- तत्त्वसङ्ग्रह, १२१३ ४०. शब्दार्थघटनायोग्या वृक्ष इत्यादिरूपतः । या वाचामप्रयोगेऽपि साभिलापेव जायते ।। तत्त्वसङ्ग्रह,१२१४ ४१. अतीतभवनामार्थभावनावासनान्वयात्। सद्यो जातोऽपि यद्योगादितिकर्तव्यतापटुः ।। तत्त्वसङ्ग्रह,१२१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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