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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
है। उसकी उत्पत्ति अर्थ-सान्निध्य के बिना नहीं होती ,इसलिए उसे नियत-प्रतिभास वाला माना गया है। नियत प्रतिभास आकार वाला होने से वह अभिलाप के संसर्ग योग्य नहीं होता।
संक्षेप में कहा जाय तो धर्मोत्तर यह दिखाना चाहते हैं कि जो ज्ञान अर्थ के बिना,उसकी सन्निधि के बिना उत्पन्न हो जाता है वह अनियत आकार वाला होता है। अनियत आकार वाला होने से उसमें अभिलाप के संसर्ग की योग्यता पायी जाती है ३° तथा जो ज्ञान अर्थ की सन्निधि से उत्पन्न होता है उसमें नियत आकार का प्रतिभास होता है अतः उसमें अभिलाप के संसर्ग की योग्यता नहीं होती। जिसमें अभिलाप के संसर्ग की योग्यता होती है वह कल्पना ज्ञान है तथा जिसमें यह नहीं होती है वह प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा प्रत्यक्ष-प्रमाण है।
प्रश्न यह उठता है कि वाच्य -वाचक संसर्ग की योग्यता तो स्वलक्षण में भी होती है तब उसके प्रत्यक्ष को कल्पना रहित कैसे कहा जा सकता है । इसलिए विनीतदेव ने धर्मकीर्ति के कल्पना-लक्षण में अभिलाप शब्द का अर्थ वाच्य सामान्य आदि किया है। उनके अनुसार अर्थ स्व-लक्षण वाच्य नहीं होता तथा शब्द स्वलक्षण वाचक नहीं होता,अपितु सामान्य ही वाच्य तथा वाचक होते हैं । इस प्रकार अवाच्य एवं अवाचक जो स्वलक्षण है उसका ग्राहक होने से इन्द्रियज्ञान निर्विकल्पक होता है।३२ ___ धर्मोत्तर के अनुसार स्वलक्षण में भी वाच्य-वाचक भाव हो सकता है,किन्तु वस्तुभाव से उत्पन्न होने के कारण वह निर्विकल्पक होता है तथा स्वलक्षण में वाच्य-वाचक भाव स्वीकार करके ही प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ कहा गया है।३३ स्वलक्षण का इन्द्रियज्ञान नियत प्रतिभास वाला होने से अभिलाप के संसर्ग योग्य नहीं होता, अतः निर्विकल्पक होता है।३४
यहां धर्मोत्तर ने एक शंका उठायी है । इन्द्रियज्ञान में तो श्रोत्रविज्ञान भी है जिसका विषय शब्द स्वलक्षण है । यदि शब्द स्वलक्षण को किञ्चित् वाच्य तथा वाचक मान लिया जाय और कल्पना का ३०. असन्निहितविषयं चार्थनिरपेक्षम् । अनपेक्षं च प्रतिभासनियमहेतोरभावाद् अनियतप्रतिभासम् । तादृशं चाभिलापसंस
योग्यम् । -न्यायबिन्दुटीका, १.५, पृ० ४७ ३१. अभिलप्यते इत्यभिलापः वाच्यः सामान्यादिः । -न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी पृ०, ५१.६, Buddhist Logic, Vol. 2 p. ___19 एवं न्यायबिन्दुटीका (हिन्दी व्याख्या) पृ. ४३ पर उद्धृत ३२.(१' विनीतदेवेन सामान्ययोर्वाच्यवाचकभावमङ्गीकृत्य निर्विकल्पकत्वमिन्द्रियविज्ञानस्य प्रतिपादितम्।-न्यायबिन्दु
टीकाटिप्पणी, पृ० २३-२४, उद्धत, न्यायबिन्दुटीका (हिन्दी व्याख्या), पृ.४९ (पूर्वं व्याख्यातृभिः असामर्थ्यवैयाभ्यां स्वलक्षणस्य संकेतयितुमशक्यत्वादवाच्यवाचकत्वम् । अवाच्यावाचकस्व
लक्षणग्राहित्वाच्चेन्द्रियविज्ञानमविकल्पकमिति व्याख्यातम् । धर्मोत्तरप्रदीप, पृ०५२ ३३.(१) अतएव स्वलक्षणस्यापि वाच्यवाचकभावमभ्युपगम्य एतदविकल्पकत्वमुच्यते ।-न्यायबिन्दुटीका, १.५ पृ०४८ (२) वस्तुतः बौद्ध-न्याय के सिद्धान्तानुसार सामान्यों का ही वाच्यवाचक सम्बन्ध होता है । यथा कहा है - परमार्थतः
सामान्ययोरेव वाच्यवाचकत्वं नार्थशब्दविशेषस्य ।- न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी, पृ० २३, उद्धृत , न्यायबिन्दुटीका, (हिन्दी व्याख्या) पृ. ४९ (३) न विशेषेषु शब्दानां प्रवृत्तावस्ति सम्भवः ।-प्रमाणवार्तिक, २.१२७ ३४. न चेन्द्रियविज्ञानमधेन नियमितप्रतिभासत्वाद् अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासं भवतीति निर्विकल्पकम् ।- न्यायबिन्दु
टीका १.५, पृ०४८
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