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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण ११३ किन्तु धर्मकीर्ति के द्वारा अभिलाप के संसर्गयोग्य प्रतिभासरूप प्रतीति को कल्पना कहने से उसका निरसन हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति ने कुमारिल सम्मत बालक के निर्विकल्पक प्रत्यक्षत्व का खण्डन करने हेतु ही उसे कल्पना की श्रेणी में रखा है। धर्मोत्तर द्वारा व्याख्या धर्मोत्तर ने अभिलापसंसर्गयोग्य पद में स्थित योग्य शब्द के महत्त्व का उद्घाटन किया है। वे कहते हैं कि कोई प्रतीति तो अभिलाप के संसर्ग से युक्त आभास वाली होती है,यथा शब्द एवं अर्थ के संकेत को जानने वाले व्यक्ति को घट शब्द से युक्त अर्थ की प्रतीति होती है, किन्तु कोई प्रतीति वाचक शब्द के संसर्ग से युक्त दिखाई नहीं देती। तथापि उसका आभास वाचक शब्द के संसर्ग के योग्य होता है, यथा शब्द एवं अर्थ के संकेत से अनभिज्ञ बालक घट को देखते समय उसके वाचक 'घट' शब्द की कल्पना नहीं करता, किन्तु फिर भी घट का आकार वाचक शब्द के संसर्ग के योग्य होता है अतः उस बालक की प्रतीति को भी कल्पना ही कहा जायेगा।२५ यदि कल्पना लक्षण में 'योग्य' शब्द का ग्रहण न किया जाता तो सद्योजात बालक के अभिलापसंसर्ग योग्य प्रतिभास को कल्पना नहीं कहा जा सकता था । २६ प्रश्न यह उठता है कि वाचक शब्द के संसर्ग की योग्यता का निश्चय कैसे हो? धर्मोत्तर इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि अनियत आकार वाला प्रतिभास अभिलाप के संसर्ग के योग्य होता है।" अनियताकार प्रतिभास उसे कहा जाता है जो अर्थ की सन्निधि के अभाव में उत्पन्न हो ।२८ जो ज्ञान ग्राह्य अर्थ से उत्पन्न होता है वह तो नियत आकार वाला होता है ,यथा-नीलादि का चाक्षुष ज्ञान । कल्पना ज्ञान वस्तु से उत्पन्न नहीं होता ,अतः वह अनियताकार होता है । अनियताकार होने से उसमें अभिलाप के संसर्ग की योग्यता होती है । विकल्प अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है । जिस प्रकार बालक जब तक दृश्यमान स्तन को यह वही है' इस तरह पूर्वदृष्ट स्तन के रूप में नहीं पहचान लेता है, तब तक रोना बन्द नहीं करता है तथा स्तनों पर मुख नहीं लगाता है। पूर्वदृष्ट स्तन तो वहां नहीं होता फिर भी उसका विकल्प उत्पन्न होता है । इस प्रकार अर्थ की सन्निधि के न होने पर भी विकल्प उत्पन्न हो सकता है । वह पूर्वदृष्ट एवं पश्चात् दृष्ट स्तनों में एकता मानकर दूध पीना आरम्भ करता है।२९ धर्मोत्तर के मत में इन्द्रियज्ञान सन्निहित अर्थ का ही प्राहक होता है, अतः वह अर्थसापेक्ष होता २५. यद्यपि अभिलापसंसृष्टाभासा न भवति तदहर्जातस्य बालकस्य कल्पना, अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा तु भवत्येव। -न्यायविन्दुटीका, १.५, पृ०४४ २६.धर्मकीर्ति केटीकाकार मनोरचनन्दी ने योग्य शब्द काआदान नहीं किया। 'वाच्यवाचकाकारसंसर्गवती प्रतीतिः कल्पना' के द्वारा उन्होंने वाच्य एवं वाचक के आकार के संसर्ग से युक्त प्रतीति को कल्पना कहा है।-प्रमाणवार्तिक (मन) २.१२६, पृ०१३८ २७. असत्यमिलापसंसर्गे कुतो योग्यतावसितिरिति चेत् । अनियतप्रतिभासत्वात् । -न्यायविन्दुटीका , १.५, पृ० ४५ २८. अर्थसन्निधिनिरपेक्षत्वात् ।- न्यायविन्दुटीका, १.५ पृ० ४६ २९. न्यायबिन्दुटीका, १.५, पृ० ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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