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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा ज्ञान कल्पना रहित होते हुए भी इन्द्रिय विकार के कारण भ्रान्त हो सकता है ।१८ उस प्रान्तज्ञान का निराकरण करने के लिए उन्होंने अभ्रान्त' पद का सन्निवेश करना आवश्यक समझा । प्रमाण-लक्षण का विवेचन करते समय यह संकेत कर दिया गया था कि धर्मकीर्ति के मत में अविसंवादी एवं अभ्रान्त पद एकार्थक नहीं है। उनके मत में प्रान्तज्ञान भी अविसंवादी हो सकता है,यथा अनुमान-प्रमाण । इसलिए अभ्रान्त पद का प्रत्यक्ष-लक्षण में पृथक्तया सन्निवेश करना उनको आवश्यक प्रतीत हुआ। धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष-लक्षण का धर्मोत्तर, शान्तरक्षित एवं कमलशील ने पूर्णतः समर्थन किया है, तथा उसकी विशद एवं विस्तृत चर्चा की है। धर्मोत्तर ने प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए इन्द्रियाश्रित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है,२° किन्तु प्रत्यक्ष के इस लक्षण में मानस,योगी एवं स्वसंवेदन प्रत्यक्षों का समावेश नहीं हो पाता अतः वे इसे व्युत्पत्तिनिमित्त लक्षण मानकर प्रवृत्तिनिमित लक्षण प्रदान करते हैं,तदनुसार वे अर्थ के साक्षात्कारी ज्ञान को प्रत्यक्ष-प्रमाण मानते हैं।२१ आचार्य शान्तरक्षित ने धर्मकीर्ति की भांति कल्पनापोढ एवं अभ्रान्तज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा है २२ तथा कमलशील ने उसके औचित्य को प्रदर्शित किया है। धर्मकीर्ति के लक्षण में प्रयुक्त कल्पना एवं अभ्रान्त शब्दों का क्या अर्थ है तथा ‘अभ्रान्त' पद के सन्निवेश का औचित्य है या नहीं ,इस पर विचार अपेक्षित है। धर्मकीर्ति के मत में कल्पना दिनाग तो नाम,जाति,गुण, क्रिया एवं द्रव्य आदि की शब्द -योजना करने को कल्पना मानते हैं,किन्तु धर्मकीर्ति उनसे भी एक चरण आगे बढ़ गये हैं। वे अभिलाप अर्थात् वाचक शब्द के संसर्ग योग्य प्रतीति को ही कल्पना शब्द से अभिहित कर देते हैं, यथा-'अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना,२२ । धर्मकीर्ति के द्वारा अभिलाप के संसर्ग योग्य प्रतिभास रूप प्रतीति को कल्पना कहने से कुमारिल भट्ट द्वारा निरूपित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन हो जाता है । कुमारिल भट्ट ने बालक एवं मूक पुरुष के ज्ञान को निर्विकल्पक माना है, क्योंकि उसमें शब्द योजना नहीं होती , - १८. आश्रयोपप्लवोद्भवम्। - अविकल्पकमेकं च प्रत्यक्षाभं ॥-प्रमाणवार्तिक २.२८८ १९. द्रष्टव्य, द्वितीय अध्याय, पृ.७२ एवं तातीय अध्याय, पृ. १२१ २०. प्रत्यक्षमिति प्रतिगतमाश्रितमक्षम् ।- न्यायबिन्दुटीका, १.३, पृ० २८ २१. यत्किञ्चिदर्थस्य साक्षात्कारि ज्ञानं तत् प्रत्यक्षमुच्यते ।-न्यायबिन्दुटीका १.३, पृ०२८ २२.प्रत्यक्ष कल्पनापोढमप्रान्तम् ।-तत्वसंग्रह,१२१३ २३. न्यायबिन्दु, १.५, प्रमाणवार्तिक २.१७६ में धर्मकीर्ति 'जायन्ते कल्पनास्तत्र यत्र शब्दो निवेशितः' द्वारा शब्दयोजना को कल्पना कहते हैं। २४. अस्ति द्यालोचनाज्ञानं प्रथम निर्विकल्पकम। बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ।।-श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्षसूत्र, ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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