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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १११ दिइनाग के मत में कल्पना-दिइनाग के अनुसार कल्पना का अर्थ है ज्ञान में नाम,जाति, गुण, क्रिया एवं द्रव्य की योजना करना।११ यथा यदृच्छा शब्दों में यह डित्य है' इस प्रकार किसी विशिष्ट अर्थ को डित्थ नाम से युक्त करना नाम योजना रूप कल्पना है । जाति शब्दों में यथा यह गाय है' इस प्रकार गाय शब्द का प्रयोग करना जाति योजना रूप कल्पना है । इसी प्रकार गुण शब्दों में यह शुक्ल है' इस प्रकार शुक्ल गुण का योजन करना गुणयोजना रूप कल्पना है, क्रिया शब्दों में यथा 'यह क्रिया से रसोइया है' इस प्रकार क्रिया की योजना करना क्रिया रूप कल्पना है तथा द्रव्य शब्दों में यथा यह दण्डी है',अथवा विषाणी है' इस प्रकार का प्रयोग करना द्रव्य योजना रूप कल्पना है । १२ दिड्नाग इन पांचों प्रकार की कल्पना से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष-प्रमाण की संज्ञा देते हैं।१३ दिङ्नाग द्वारा नामादि योजना रूप कल्पना का निषेध करने के पीछे अभिधर्मकोशव्याख्या आदि ग्रंथों के दो कथन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यथा (१) चक्षर्विज्ञान-समड़ी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति । (२) अर्थेऽर्थसंज्ञो नत्वर्थे धर्मसंज्ञीति । इनमें प्रथम वाक्य का अर्थ है चक्षुर्विज्ञान से जानने वाला पुरुष नील अर्थको जानता है ,किन्तु उसे यह नील है' इस रूप में नहीं जानता । नील को जानना कल्पना रहित है, 'यह नील है' इस रूप में कथन करना अथवा जानना कल्पनायुक्त है । प्रत्यक्ष-प्रमाण पल्पनारहित होता है ,अतःउसमें नील का ज्ञान होते हुए भी यह नील है' इस रूप में ज्ञान नहीं होता । द्वितीय वाक्य 'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञी' भी इसी प्रकार का है। अर्थ में अर्थ का ज्ञान होना प्रत्यक्ष है, किन्तु अर्थ में धर्म का अर्थात् नाम का ज्ञान होना १५ विकल्पात्मक होने से प्रत्यक्ष नहीं है। दिइनाग का मन्तव्य है कि अर्थ में शब्द नहीं है १६ जिससे अर्थ का ज्ञान होने पर शब्द भी प्रतिभासित हों। ३.धर्मकीर्तीय प्रत्यक्ष-लक्षण धर्मकीर्ति संभवतःदिइनागप्रणीत लक्षण को पर्याप्त नहीं मानते हैं इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष-लक्षण में कल्पनापोढ के अतिरिक्त 'अभ्रान्त' पद का भी सन्निवेश किया है। वे उसी ज्ञान को प्रत्यक्ष-प्रमाण मानते हैं जो कल्पना से रहित एवं अभ्रान्त हो । धर्मकीर्ति का कथन है कि कभी कोई ११. नामजात्यादियोजना - Dignaga, on perception, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, ३ १२. यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते डित्य इति । जातिशब्देषु जात्या गौरिति । गुणशब्देषु गुणेन शुक्ल इति । __क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति । द्रव्यशब्देषु द्रव्येण दण्डी विषाणीति ।-Dignaga, on perception, प्रमाण समुच्चयवृत्ति ,C एवं प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ० १२ १३. यौषा कल्पना नास्ति तत्प्रत्यक्षम् | Dignaga, on perception, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, C १४. (i) Dignaga, on perception, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति Da, a -२, अभिधर्मकोशव्याख्या, पृ० ६४.२२-२३ (ii) द्वादशारनयचक्र (ज) भाग १ पृ०६०-६१ १५. धर्मों नामोच्यते नामकायः पदकायो व्यंजनकायः।- द्वादशारनयचक्र (ज) भाग-१, पृ० ६२ १६. अन्येत्वर्थशून्यैः शब्दैः ।-प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ० १२, Dignaga on perception, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, C १७. तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढमप्रान्तम् ।- न्यायबिन्दु, १.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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