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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा न्यायवार्तिक' तथा दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय में प्राप्त होता है। वादविधि में प्रदत्त लक्षण के अनुसार वही ज्ञान प्रत्यक्ष है जो अर्थ से उत्पन्न हुआ है। जिस अर्थ को जिस ज्ञान से व्यपदिष्ट किया जाता है, यदि वह ज्ञान उसी अर्थ से उत्पन्न होता है तो प्रत्यक्ष है, अन्यथा नहीं " । यथा किसी ज्ञान को घट ज्ञान कहा जाय, और वह यदि घट से उत्पन्न हो तो वह घट का प्रत्यक्ष कहलायेगा । इस प्रकार वसुबन्धु का प्रत्यक्ष-लक्षण अर्थाश्रित अथवा आलम्बनाश्रित है, इन्द्रियाश्रित नहीं । दिनाग ने वादविधि में वर्णित प्रत्यक्ष-लक्षण का खण्डन करते हुए कहा है कि यदि आलम्बन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जायेगा तो स्मृति, अनुमान, अभिलाष आदि ज्ञान भी अन्य आलम्बन की अपेक्षा नहीं करते, अतः प्रत्यक्ष का यह लक्षण स्मृत्यादि ज्ञानों में भी अतिव्याप्त हो जायेगा । ११० २. दिङ्नागीय प्रत्यक्ष- लक्षण ७ दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष को अक्षाश्रित निरूपित किया है। वे प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहते 'अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षम् अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय के आश्रित या सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है । दिड्नाग के अनुसार प्रत्यक्षज्ञान कल्पना रहित होता है। इसलिए उन्होंने कल्पनापोढ को प्रत्यक्ष का लक्षण कहा है' । कल्पना का अर्थ है, नाम, जाति, क्रिया, द्रव्य आदि की योजना । ९ कल्पनापोढ होने पर भी प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञानात्मक होता है। इसे दिङ्नाग के टीकाकार जिनेन्द्रबुद्धि ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार 'अवत्सा धेनु को लाओ' इस कथन में वत्स का निषेध करने पर भी गोधेनु का बोध होता ही है, इसी प्रकार कल्पना का निषेध करने पर भी ज्ञान का बोध होता ही है, क्योंकि ज्ञान ही कल्पना से युक्त होता है। अतः कल्पना का निषेध करने से उससे रहित ज्ञान का बोध होता है। इस प्रकार दिनाग के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का कहा जा सकता है- १. कल्पनायुक्त अर्थात् सविकल्पक और २. कल्पना रहित अर्थात् निर्विकल्पक । इनमें से जो ज्ञान कल्पनारहित होता है वही दिङ्नाग के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण है । २. न्यायवार्तिक, १.१.४ ३. प्रमाणसमुच्चय, १.१५ ४. ततोऽर्थाद्विज्ञानं प्रत्यक्षम् । ५. यद्विज्ञानं येन विषयेण व्यपदिश्यते तत् तन्मात्रादुत्पद्यते । नान्यतः । ततोऽन्यतश्च न भवतीति तज्ज्ञानं प्रत्यक्षम् । - प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ० ३४ ६. आलम्बनं चेद् स्मृत्यादिज्ञानं नान्यदपेक्षते । प्रमाणसमुच्चय, १.१६ ७. मसाकी हत्तौड़ी के Dignāga, on perception, p. 77 पर इसे दिङ्नाग के न्यायमुख, पृ० ३ बी १७ (चीनी अनुवाद) का वाक्य बतलाया गया है । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, पृ० ४५६, धर्मोत्तरप्रदीप, पृ० ३८.२६ पर भी यह वाक्य उद्धृत है। ८. प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् ।-प्रमाणसमुच्चय, १.३ ९. अथ केयं कल्पना नामजात्यादि योजना Dignāga, on perception, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, ३ १०. कल्पनापोढमिति निर्देशेनापि तज्ज्ञानात्मकमिति गम्यते । ज्ञानमेव यतः कल्पनासंसृष्टं तस्मात् तत्प्रतिषेधेन तदेव प्रतीयते अवत्साधेनुरानीयतामिति यथा वत्सप्रतिषेधेन गोधेनोरेव । प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ०९-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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