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________________ तृतीय अध्याय प्रत्यक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष-प्रमाण को प्रमाणवादी समस्त दार्शनिक स्वीकार करते हैं। प्रमाण को अस्वीकार करने वाले नागार्जुन, श्रीहर्ष, जयराशिभट्ट आदि कुछ दार्शनिकों के अतिरिक्त न्याय,वैशेषिक,मीमांसा, बौद्ध, सांख्य, चार्वाक आदि सभी भारतीय दर्शन-प्रस्थान प्रत्यक्ष- प्रमाण का प्रतिपादन करते हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण रूप में स्वीकार करते हुए भी उनमें उसके स्वरूप को लेकर मतभेद रहा है । सांख्य, न्याय,मीमांसा आदि दर्शनों ने ऐन्द्रियक ज्ञान को अथवा इन्द्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाण की श्रेणी में रखा है,जबकि बौद्ध एवं जैन दार्शनिक ऐन्द्रियक एवं अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के ज्ञानों को प्रत्यक्ष-प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं । वे प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने के कारण इन्द्रिय एवं उसके पदार्थ के साथ हुए सन्निकर्ष को प्रमाण की कोटि में नहीं रखते हैं। प्रत्यक्ष को ये दोनों दर्शन स्फुट एवं साक्षात्कारी ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हुए भी निर्विकल्पकता एवं सविकल्पकता को लेकर गहरा मतभेद रखते हैं। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण निर्विकल्पक ज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है, जबकि जैनदार्शनिक इसे हेयोपादेय बुद्धि में सहायक न होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं । जैनदार्शनिकों के अनुसार निश्चयात्मक अर्थात् सविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण होता है,निर्विकल्पक ज्ञान नहीं। जैनदर्शन में ज्ञान के पूर्व 'दर्शन' का होना स्वीकार किया गया है,जो बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान से कुछ सादृश्य रखता है, किन्तु जैनदार्शनिक निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण न मानने के कारण 'दर्शन' को प्रमाण की कोटि से बाहर रखते हैं । __ जैन-बौद्ध परम्परा में प्रत्यक्ष-प्रमाण के विषय में क्या चिन्तन रहा है, इसे प्रस्तुत करते हुए आगे जैनदार्शनिकों द्वारा बौद्धों के कल्पनापोढ अथवा निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की समालोचना प्रस्तुत की जाएगी। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष-लक्षण बौद्धदर्शन में क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप तीन प्रकार के प्रत्यक्ष-लक्षण मिलते हैं। प्रथम लक्षण वसुबन्धु द्वारा निरूपित है, जिसके अनुसार अर्थ से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है। दिइनाग ने इस लक्षण का खण्डन किया है तथा कल्पना से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। यह प्रत्यक्ष का द्वितीय लक्षण कहा जा सकता है। तृतीय लक्षण धर्मकीर्ति ने दिया है जिसके अनुसार प्रत्यक्षप्रमाण कल्पनारहित होने के साथ अभ्रान्त भी होता है। १. वसुबन्धु का प्रत्यक्ष-लक्षण वसुबन्धु ने 'वादविधि' में प्रत्यक्ष का लक्षण दिया है, जिसका उल्लेख एवं खण्डन उद्योतकर के १. Seven works of Vasubandhu, p.40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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