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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जबकि विकलज्ञान,अपूर्णज्ञान,नयज्ञान और वस्तुगत ज्ञान में उसका निश्चय परतः होगा । पारमार्थिक प्रत्यक्ष के द्वारा होने वाले ज्ञान में उसके प्रामाण्य का बोध स्वतः होगा जबकि व्यावहारिक प्रत्यक्ष और अनुमानादि में प्रामाण्य का बोध स्वतः और परतः दोनों प्रकार से सम्भव है ।१८३ सागरमल जैन के कथन से प्रतीत होता है कि वादिदेवसूरि ने ज्ञान में प्रामाण्य या अप्रामाण्य की उत्पत्ति का निरूपण बाह्य प्रमेय की दृष्टि से किया है, आत्मगत ज्ञान की दृष्टि से नहीं । ज्ञप्ति का प्रतिपादन भी अभ्यास एवं अनभ्यासदशा के आधार पर सामान्य लोक-व्यवहार के आश्रित किया गया प्रतीत होता है। ___जो भी हो,बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने मीमांसकों के स्वतःप्रामाण्यवाद का जमकर खण्डन किया है तथा एकान्ततः परतः प्रामाण्यवाद का भी यथावसर प्रतिषेध किया है। दोनों सम्प्रदायों के दार्शनिकों ने स्वतः एवं परतः दोनों प्रकार से प्रामाण्यवाद का निश्चय स्वीकार किया है। अतः बौद्ध एवं जैन प्रामाण्यवाद में विरोध नहीं है । यही कारण है कि किसी भी जैन दार्शनिक ने बौद्ध प्रामाण्यवाद को अपनी आलोचना का विषय नहीं बनाया है तथा बौद्ध दार्शनिकों ने भी जैन प्रामाण्यवाद का खण्डन नहीं किया है।
१८३. जैनभाषादर्शन, पृ० ८८.२०-२४
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