SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद १०७ जैन दार्शनिकों ने प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की उत्पत्ति एवं उनकी ज्ञप्ति पर पृथक् रूपेण विचार किया है । वादिदेवसूरि ने प्रतिपादित किया है कि प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति परतः होती है तथा ज्ञप्ति अभ्यासदशा में स्वतः एवं अनभ्यासदशा में परतः होती है ।१७४ जैन दार्शनिक कहते हैं कि जिस प्रकार ज्ञान के निमित्त इन्द्रियादि के दोष के कारण ज्ञान में अप्रामाण्य उत्पन्न होता है उसी प्रकार इन्द्रियादि के निर्दुष्ट होने पर ज्ञान में प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है ।१७५ ज्ञान के प्रामाण्य या अप्रामाण्य की परीक्षा प्रमेय के आश्रित होती है। ज्ञान में ऐसी कोई विशेषता नहीं है कि उसमें बिना इन्द्रियादि बाह्य कारणों के अप्रामाण्य उत्पन्न हो सके।७६ दो चन्द्रमाओं के दिखाई देने रूप अप्रामाण्य जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय के दोष से होता है उसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय के निर्दोष या निर्मल होने पर एकचन्द्रज्ञान में प्रामाण्य भी उत्पन्न हो सकता है ।१७७ वादिदेवसूरि के पूर्व माणिक्यनन्दी ने भी प्रामाण्य के निश्चय को स्वतः एवं परतः बतलाया है।१७८ प्रभाचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि अभ्यास दशा में ज्ञान का प्रामाण्य ज्ञात करने के लिए किसी भिन्न ज्ञान या वस्तु की आवश्यकता नहीं होती, अभ्यास के कारण हम उसी ज्ञान से प्रमेय का अव्यभिचरित ज्ञान कर लेते हैं तथा अनभ्यस्त दशा में या संशयादि की स्थिति में ज्ञान का प्रामाण्य जानने के लिए किसी भिन्न ज्ञान या अर्थक्रिया संवाद का आश्रय लेना पड़ता है ।१७९ हेमचन्द्राचार्य ने भी ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः एवं परतः दोनों प्रकार से उपपन्न बतलाया है।१८० जैन दर्शन में वादिदेवसूरि कृत प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की उत्पत्ति तथा ज्ञप्ति के सिद्धान्त को सर्वाधिक आदरमिला है । पं. सुखलालसंघवी ने भी वादिदेवसूरि कृत स्थापन को पूर्णतया जैनपरम्परा का द्योतक बतलाया है ।१८१ किन्तु डा. सागरमल जैन प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की उत्पत्ति को एकान्ततः परतः मानना उचित नहीं समझते हैं । सागरमल जैन लिखते हैं कि “वे सभी ज्ञान जिनका ज्ञेय ज्ञान से भिन्न नहीं हैं,उनके प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतःही होती है । १८२ प्रामाण्य के निश्चय के संदर्भ में भी वे लिखते है कि सकलज्ञान, पूर्णज्ञान और आत्मगतज्ञान में ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होगा, १७४. तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति ।-प्रमाणवार्त्तिक (मन), १.२१ १७५. द्रष्टव्य (१) प्रभाचन्द्र कृत स्वतः प्रामाण्य परीक्षा, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० ४३६ (२) स्याद्वादरलाकर, पृ०२४०-२४२ । १७६ स्वस्मिन् व्यभिचारित्वासम्भवात् । तेन सर्वं ज्ञानं स्वापेक्षया प्रमाणमेव न प्रमाणाभासः ।- स्याद्वादरत्नाकर , पृ० २४०.८ १७७. यथैव ह्यप्रामाण्यलक्षणं विशिष्ट कार्य काचकामलादिदोषलक्षणविशिष्टेभ्यश्चक्षुरादिभ्यो जायते तथा प्रामाण्यमपि गुणविशेषणविशिष्टेभ्यो विशेषाभावात्।-प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० ४०९ । १७८. तत्रामाण्यं स्वतः परतति ।-परीक्षामुख, १.१३ १७९. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० ४५० १८०. प्रमाणमीमांसा, १.१.८ एवं वृत्ति । १८१. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ०१७ १८२. जैनभाषादर्शन, पृ० ८८.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy