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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अप्रामाण्य का ज्ञान स्वतः होता है, किन्तु बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित एवं कमलशील ने स्पष्टरूपेण प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को स्वतः एवं परतः दोनों प्रकार का घोषित किया है। १६७ 'कमलशील ने मीमांसकों द्वारा उपस्थापित प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य के चार विकल्पों का निर्देश दिया है । १६८ (१) प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों का स्वतः होना (२) प्रामाण्य एवं अप्रमाण्य दोनों का परतः होना (३) प्रामाण्य का परतः एवं अप्रामाण्य का स्वतः होना तथा (४) प्रामाण्य का स्वतः एवं अप्रामाण्य का परत. होना। मीमांसकों ने इनमें से चौथा विकल्प अपनाया है, किन्तु कमलशील बौद्ध प्रामाण्यवाद का निर्देश करते हुए कहते हैं कि इनमें से हमें कोई भी विकल्प अभीष्ट नहीं है। हमारे अनुसार तो प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों कहीं स्वतः एवं कहीं परतः हो सकते हैं, अतः हमें इनका अनियम पक्ष अभीष्ट है । १६९ अनियमपक्ष का अभिप्रायः संभवतः अभ्यास दशा में प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों का स्वतः तथा अनभ्यासदशा में दोनों का परतः होना है। । १०६ धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष का कल्पनापोढ लक्षण निर्दिष्ट करते समय प्रत्यक्ष की सिद्धि किसी अन्य प्रमाण में नहीं, अपितु प्रत्यक्ष से ही स्वीकार की है १७०, किन्तु कदाचित् ऐसा भी हो सकता है कि प्रत्यक्ष से अर्थक्रिया का ज्ञान न हो या समारोप हो तो उसका अनुमान के द्वारा या अर्थक्रिया ज्ञान के द्वारा निश्चय किया जाता है। १७१ सारांश यह है कि अर्थक्रिया के अनुरोध से ही प्रमाण का प्रामाण्य निश्चित होता है,१७२ चाहे वह स्वतः हो या परतः । बौद्ध प्रामाण्यवाद का स्पष्ट संकेत हमें प्रमाणवार्तिक की मनोरथनन्दी द्वारा की गयी वृत्ति में मिलता है । मनोरथनन्दी कहते हैं कि अर्थक्रियावभासक प्रत्यक्ष स्वतः अर्थक्रियानुभवात्मक होता है इसलिए उसमें प्रामाण्य की सिद्धि करने के लिए अन्य अर्थक्रिया की अपेक्षा नहीं होती है इसलिए वह स्वतः प्रमाण है । इसमें अर्थक्रिया की परम्परा का अनुसरण करने वाला अनवस्था दोष भी नहीं आता है तथा जहां अनभ्यास दशा में सन्दिग्धप्रामाण्य होता है वहां उत्पत्ति में उसके अर्थक्रिया ज्ञान से अथवा अनुमान से प्रामाण्य का निश्चय किया जाता है। 1 इस प्रकार प्रामाण्य स्वतः एवं परतः दोनों प्रकार से उपपन्न है । १७३ 1 १६७. तत्त्वसंग्रह, २९६०-२९६१ एवं पञ्जिका । १६८. तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, २८१०-११, पृ० ९०३ । १६९. न हि बौद्धेरेषां चतुर्णामेकतमोपि पक्षोऽभीष्ट; अनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि उभयमप्येतत्किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति । - तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, ३१२२ पृ० ९८१ । १७०. (१) प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति । - प्रमाणवार्तिक, २.१२३ (२) स्वरूपस्य स्वतो गतिः ।- प्रमाणवार्तिक, १.६ १७१. प्रामाण्यं व्यवहारेण । - प्रमाणवार्तिक, १.७ १७२. अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् । - प्रमाणवार्त्तिक, २.५८ १७३. अर्थक्रियानिर्भासं तु प्रत्यक्षं स्वत एवार्थक्रियानुभवात्मकम्, न तत्र परार्थक्रियापेक्ष्यत इति तदपि स्वतो निश्चितप्रामाण्यम् । अत एवार्थक्रियापरम्परानुसरणादनवस्थादोषोऽपि दुःस्थ एव । यत्त्वनभ्यस्तदशायां संदिग्धप्रामाण्यम्, तस्यार्थक्रियाज्ञानाद् अनुमानाद्वा प्रामाण्यं निश्चीयते । - प्रमाणवार्त्तिक, १.३, पृ० ४ उत्पत्ती . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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