________________
प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
१०५
जैन दार्शनिक प्रमेय अर्थ को नित्यानित्यात्मक मानते हैं,सर्वथा नित्य एवं सर्वथा अनित्य नहीं। उनके मत में पर्याय की दृष्टि से अर्थ अनित्य है,एवं द्रव्य दृष्टि से नित्य । अतः प्रमाण का अविसंवादी होना अनेकान्तवाद के अनुसार जैनमत में भी कथञ्चित् ही सिद्ध किया जा सकता है,सर्वथा नहीं। दूसरे शब्दों में व्यावहारिक दृष्टि से ही जैनमत में प्रमाण अविसंवादक होता है,परमार्थतः नहीं। किन्तु जैन दार्शनिकों द्वारा प्रमाण को सविकल्पक,व्यवसायात्मक एवं संव्यवहार के लिए उपयोगी मानने के कारण संवादकतागत वे दोष नहीं आते जो बौद्ध दार्शनिकों द्वारा मान्य निर्विकल्पक प्रत्यक्ष एवं भ्रान्तज्ञान रूप अनुमान-प्रमाण में आते हैं। तृतीय लक्षण का परीक्षण
तृतीय प्रमाण-लक्षण अर्थसारूप्य का जैन दार्शनिकों ने सबल खण्ड किया है, क्योंकि उनके अनुसार ज्ञान में अर्थाकारता का होना संभव नहीं है । इस खण्डन की चर्चा षष्ठ अध्याय में प्रमाण के फल का निरूपण करते समय की गयी है ।१६२
प्रामाण्यवाद बौद्ध एवं जैन दर्शन प्रमाण के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य के निश्चय को अभ्यास दशा में स्वतः तथा अनभ्यास दशा में परतः स्वीकार करने में एकमत हैं ।
प्रमाणभूत ज्ञान का प्रमेय से अव्यभिचरित होना प्रमाण का प्रामाण्य है तथा प्रमेय से व्यभिचरित होना उसका अप्रामाण्य है ।१६३ दूसरे शब्दों में कहें तो प्रमाण की अर्थ से अविसंवादिता ही उसका प्रामाण्य है एवं अर्थ से विसंवाद होना उसका अप्रामाण्य है ।१६४
प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को लेकर भारतीय दर्शन में गहन विचार हआ है । मीमांसा दार्शनिक प्रमाण में प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः एवं अप्रामाण्य का ज्ञान परतःमानते हैं ।१६५ न्याय दार्शनिक प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों का ज्ञान परतः मानते हैं। जिस ज्ञान से प्रमेय ज्ञात हुआ है उससे ही यदि ज्ञान का प्रामाण्य ज्ञात होता है तो उसे स्वतः प्रामाण्य कहा गया है एवं उसके प्रामाण्य का ज्ञान करने के लिए यदि अन्य ज्ञान या अर्थ की अपेक्षा होती है तो उसे परतःप्रामाण्य कहा गया है । ___ जैन एवं बौद्ध दार्शनिक इस बात पर एकमत हैं कि अभ्यासदशा में प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य का ज्ञान स्वतः होता है तथा अनभ्यासदशा में परतः होता है । यद्यपि सर्वदर्शनसङ्ग्रह एवं बुद्धिस्ट लॉजिक में बौद्धों के एक भिन्न मत का उल्लेख किया गया है,६६ जिसके अनुसार प्रामाण्य का ज्ञान परतः एवं १६२. द्रष्टव्य, षष्ठ अध्याय में प्रमाण की अर्थाकारता का खण्डन , पृ.३६८-३७८ १६३. ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् । तदितरत्त्वप्रामाण्यम्।-वादिदेवसूरि प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.१८ १६४. वस्तुसंवादःप्रामाण्यमभिधीयते।-तत्त्वसंग्रह, २९५८ १६५. स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम्।
न हि स्वतो ऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ।।-श्लोकवार्तिक, चोदनासूत्र, श्लोक ४७ १६६.(१) सर्वदर्शनसङ्ग्रह, पृ० २७९ (सौगोश्वरमं स्वतः) (२) श्चेरबात्स्की, Buddhist Logic, Vol. I, p. 66
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org