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________________ १०४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा उपचरित है। इसलिए अनुपचरित अविसंवादित्व को प्रमाण का लक्षण मानना अभीष्ट हो तो सम्यगर्थ निर्णय को प्रमाण मानना चाहिए।१६१ समीक्षण जैन दार्शनिकों ने बौद्धों के 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्' प्रमाणलक्षण का खण्डन करते हुए उसे बौद्ध तत्त्वमीमांसा में भी अनुचित ठहराया है । अकलङ्क,विद्यानन्द,प्रभाचन्द्र,वादिदेवसूरि आदि सारे जैन दार्शनिकों ने यद्यपि बौद्धों के प्रभाव से ही प्रमाण को अविसंवादक माना है, किन्तु वे अविसंवादकता को निश्चयात्मकता में फलित करते हैं तथा अविसंवादकता का विषय सामान्यविशेषात्मक अथवा नित्यानित्यात्मक अर्थ को मानते हैं । बौद्धों की क्षणिकवादी तत्त्वमीमांसा में दृश्य एवं प्राप्यक्षण के अत्यन्त भिन्न होने के कारण उसमें प्रमाण की अविसंवादकता सिद्ध नहीं है। अविसंवादकता का अर्थ है-प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता । अर्थात् जिस अर्थ का ज्ञान हुआ है वह वैसा ही प्राप्त हो तो ज्ञान की अविसंवादकता सुरक्षित रहती है,यदि जैसे अर्थ का ज्ञान हुआ,वैसे वह प्राप्त न हो तो ज्ञान विसंवादक कहलाता है । जैन दार्शनिक कहते हैं कि बौद्ध तत्त्वमीमांसा में जो अर्थ दृष्ट होता है, वह क्षणिक होने के कारण उत्तर क्षण में नष्ट हो जाता है, अतः वह दृष्ट अर्थ प्राप्त नहीं होता,कोई अन्य ही अर्थ प्राप्त होता है । इसलिए बौद्ध तत्त्वमीमांसा में प्रमाण का अविसंवादक होना सिद्ध नहीं होता है। वस्तुतः बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को सांव्यवहारिक दृष्टि से अविसंवादी मानते हैं,पारमार्थिक दृष्टि से नहीं । जैन दार्शनिकों ने जो खण्डन किया है, वह बौद्धों की पारमार्थिक दृष्टि से किया है । जैन दार्शनिकों के अनुसार प्रमाण की अविसंवादकता पारमार्थिक दृष्टि से होनी चाहिए,तभी अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण का सामान्य लक्षण निरूपित किया जा सकता है । प्रमाण का यह सांव्यवहारिक लक्षण बौद्धों के अनुमानप्रमाण में ही घटित हो पाता है,प्रत्यक्ष-प्रमाण में नहीं । वस्तुतःप्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मानकर उसमें अविसंवादकता सिद्ध नहीं की जा सकती। यदि सांव्यवहारिक दृष्टि से संतान का अध्यवसाय मानकर अविसंवादकता सिद्ध की जाती है तो प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक नहीं कहा जा सकता। वह सांव्यवहारिक दृष्टि से कथञ्चित् सविकल्पक सिद्ध होता है । प्रमाण का सविकल्पक एवं व्यवसायात्मक होना जैन दार्शनिकों को इष्ट है,क्योंकि अविसंवादकता को उसी में फलित किया जा सकता है, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में नहीं। अनुमान को बौद्ध दार्शनिकों ने सांव्यवहारिक दृष्टि से ही प्रमाण स्वीकार किया है, क्योंकि पारमार्थिक दृष्टि से वह प्रान्त ज्ञान है । भ्रान्त होने के कारण जैनदार्शनिक बौद्ध कल्पित अनुमानप्रमाण में भी परमार्थतः अविसंवादकता स्वीकार नहीं करते। अनुमानप्रमाण प्रत्यक्षपूर्वक होता है,क्योंकि लिङ्गनिश्चय प्रत्यक्षजन्य विकल्प से होता है । प्रत्यक्ष में जब तक संवादकता सिद्ध नहीं होती तब तक अनुमान-प्रमाण में भी ज्ञान को संवादक नहीं माना जा सकता। १६१. प्रमाणमीमांसा, पृ०६-७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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