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प्रमाण - लक्षण और प्रामाण्यवाद
जानकर प्रवृत्त हुआ व्यक्ति अर्थक्रिया में विसंवाद को प्राप्त नहीं करता है वह विकल्प भी सत्य है । इस प्रकार दोनों में साम्य है ।
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प्रत्यक्ष का विषय जिस प्रकार सत् माना गया है उस प्रकार रूप अनुमानादि प्रमाणों का विषय भी सत् या पारमार्थिक है । प्रत्यक्ष द्वारा भी सामान्य रूपादि का ही ग्रहण होता है स्वलक्षण परमाणुओं का नहीं । इसलिए यह बाह्य जगत् मात्र सांव्यवहारिक नहीं, अपितु वास्तविक है । जिस प्रकार वृक्षादि का विशेष रूप अपनी अर्थक्रिया का संपादन करता है उसी प्रकार वृक्षादि का सामान्य रूप भी अर्थक्रिया का संपादन करता है । ज्ञाता के परितोष रूप अर्थक्रिया सामान्य में भी है। स्वविषय के ज्ञान को उत्पन्न करना रूप अर्थक्रिया भी सामान्य में है । यदि सजातीय अर्थ को उत्पन्न करना अर्थक्रिया है तो वह भी विसदृश परिणाम की भांति सामान्य (सदृशपरिणाम) में है । बौद्ध कहते हैं कि विसदृश परिणाम वाले बालपादप से विसदृश परिणाम वाला ही तरुण पादप प्रकट होता हुआ उपलब्ध होता है, तो जिस प्रकार विसदृश परिणाम विशेष से विसदृश परिणाम विशेष प्रकट होता है उसी प्रकार सदृश परिणाम वाले सामान्य से सदृश परिणाम सामान्य प्रकट होता है । सामान्य से सजातीय अर्थों को उत्पन्न करने रूप अर्थक्रिया होती है। इसलिए विशेष (स्वलक्षण) के समान सामान्य (सामान्य लक्षण) भी वास्तविक है, वस्तु रूप है, और उस वस्तु में प्रवर्तमान विकल्प वस्तु का अवभासन करता है । वह भी प्रत्यक्ष की भांति संवादक होने से अनुपप्लव है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि विकल्प से किया जाने वाला लक्ष्यलक्षणभाव केवल बुद्धि से आरूढ या काल्पनिक नहीं, अर्थात् सांवृत नहीं है, अपितु पारमार्थिक है। १६०
हेमचन्द्र - आचार्य हेमचन्द्र ने भी बौद्ध प्रमाण-लक्षण में दोषोद्भावन किया है तथा निर्णयात्मक ज्ञान को प्रमाण मानने पर बल दिया है।
बौद्ध एक ओर अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण बतलाकर उसे सांव्यावहारिक प्रमाण का लक्षण प्रतिपादित करते हैं तो दूसरी ओर निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, किन्तु निर्विकल्प ज्ञान संव्यवहार को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है, अतः उसको प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? यदि निर्विकल्प ज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होने वाला विकल्प संव्यवहार को उत्पन्न करने में समर्थ होता है इसलिए निर्विकल्प ज्ञान प्रमाणभूत है, तो यह बौद्धों के द्वारा मात्र याचतिकमण्डन-न्याय का अनुसरण है। इससे अच्छा तो यह है कि संव्यवहार के कारणभूत विकल्पज्ञान का ही प्रामाण्य स्वीकर कर लें । विकल्प ज्ञान या निर्णयात्मक ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर परम्परापरिश्रम का भी परिहार हो सकेगा । यदि बौद्ध मत में विकल्पज्ञान का प्रामाण्य नहीं है तो उसके कारण होने वाला व्यवहार अविसंवादी कैसे होगा ? दृश्य एवं विकल्प्य क्षणों में एकत्व का अध्यवसाय करने से यदि संवादित्व स्वीकार किया जाता है तो यह संवादित्व तिमिररोग से ग्रस्त पुरुष के ज्ञान की भांति वास्तविक नहीं है, अपितु १६०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट- क
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