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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
वादिदेवसूरि बौद्ध मत का परिहार करते हुए कहते हैं कि यह तो विज्ञानवाद के सिद्धान्त की घोषणामात्र है ,प्राकरणिक प्रसंग का समर्थन नहीं । वस्तुत : बौद्धों के द्वारा सांवृति प्रतीति को प्रमाण कहना हास्यास्पद है । जो संवृति विचार गोचर नहीं होती है उससे प्रमाण के लक्षण का निर्वाह करना महान् कैतव है । ग्राह्य-ग्राहकादि का व्यवहार भी अनादि अविद्या की वासना-निर्मित नहीं है ,अपितु तात्त्विक है ,वास्तविक है । १५६ यदि बौद्धों में विज्ञान मात्र को सत् नहीं मानने वालों के द्वारा सांवृत संतान की कल्पना की जाती है,तब तो उन्हें नैयायिकादि द्वारा सम्मत जाति ,अवयवी ,समवाय आदि को भी सांवृत सत् मान लेना चाहिए। यदि वृत्ति ,विकल्प आदि बाधकों के कारण जाति ,समवाय आदि की सत्यता नहीं रहती है तो उसी प्रकार भेद आदि विकल्पों से सन्तान भी बाधित होता है। उसका भी अध्वसाय करके प्रमाण के अविसंवादी लक्षण का निर्वाह नही किया जा सकता ।१५७
धर्मकीर्ति प्रामाण्यं व्यवहारेण १५८ द्वारा तथा प्रज्ञाकरगुप्त "सांव्यवहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणम्" १५९ कथन द्वारा “प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् " लक्षण को सांव्यवहारिक प्रतिपादित करते हैं । वादिदेवसूरि ने इसका निरसन किया है। वे सांव्यवहारिकता को कल्पित नहीं वास्तविक मानते हैं। उन्होंने प्रमाण को पारमार्थिक माना है,क्योंकि उनकी दृष्टि में जगत् पारमार्थिक है।
वादिदेवसरि ने प्रमाण के सांव्यवाहिक होने पर अनेक प्रश्न खड़े किए हैं। वे कहते हैं कि यदि संवृति या संव्यवहार से प्रमाण का लक्ष्यलक्षण भाव सिद्ध है तो वह संवृति क्या है ? उपचार को यदि संवृति कहा जाता है तो कोई मुख्य लक्ष्यलक्षण भाव भी होना चाहिए क्योंकि मुख्य की सत्ता के बिना उपचार की प्रवृत्ति नहीं होती है । विचार से अनुपपद्यमान विकल्प बुद्धि यदि संवृति है तो उससे लक्ष्यलक्षण भाव नहीं बन सकता । यदि उसमें लक्ष्यलक्षणभाव का अवभासन होता है, इसलिए बौद्ध (बुद्ध्यारूढ) रूप से लक्ष्यलक्षणभाव सिद्ध होता है तो अबौद्ध रूप में सिद्ध क्यों नहीं होता? यदि अबौद्ध रूप विकल्प से बहिर्भूत है इसलिए वह असंभव है,तो यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अबौद्ध रूप बाह्य जगत् को माने बिना विकल्प का विषय क्या होगा? समस्त विकल्पों का विषय असंभव या वितथ नहीं है। प्रत्यक्ष के विषय के समान विकल्प का विषय भी संभव है। यदि मनोराज्यादि विकल्प के समान समस्त विकल्प असंभव हैं तो वैसे ही केशोण्डुक प्रत्यक्ष की भांति समस्त प्रत्यक्ष असंभव हो जाएगें। यदि प्रत्यक्षाभास का विषय असंभव है,प्रत्यक्ष का नहीं तो इसी प्रकार विकल्पाभास का विषय असंभव होता है, विकल्प का नहीं। यदि यह प्रश्न उठे कि कौनसा विकल्प सत्य है ? तो यह भी प्रश्न है कि कौनसा प्रत्यक्ष सत्य है ? जिससे अर्थक्रिया में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति विसंवाद को प्राप्त नहीं करता है, यदि वह सम्यक् प्रत्यक्ष है तो जिस विकल्प से अर्थ को १५६. वादिदेवसूरिने बौद्ध दर्शन सम्मत विज्ञानवाद का विस्तृत खण्डन किया है । द्रष्टव्य, स्याद्वादरत्नाकर , पृ. १४८-१७२ १५७. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क १५८.प्रमाणवार्तिक, १.७ १५९. प्रमाणवार्तिकभाष्य, १.१
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