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________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद १०१ है, और अविसंवादक होने से प्रमाण होता है । इसीलिए कहा गया है-“अतस्मिंस्तद्ग्रहो भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा” अर्थात् जो जैसा नहीं है ,उसमें वैसी वस्तु का ग्रहण करना भ्रान्ति है एवं वह भ्रान्ति भी सम्बन्ध से (स्वलक्षण सम्बन्ध से) प्रमा होती है। अनुमान के अतिरिक्त अन्य विकल्पों से नियत अर्थ का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं होता,फलतः वे विकल्प अर्थप्रापक नहीं होते और अर्थप्रापक नहीं होने से अविसंवादक नहीं होते और अविसंवादक नहीं होने से प्रमाण नहीं होते। प्रमाण यथा-अध्यवसित अर्थ का प्रापक होता है। अत : पीतशंख आदि के ग्राहक ज्ञान में शंखमात्र आदि की प्राप्ति होने पर भी उस ज्ञान का प्रामाण्य नहीं है ,क्योंकि जैसा अध्यवसाय किया गया वैसा पीत ख प्राप्त नहीं हुआ । शंख तो प्राप्त हुआ ,किन्तु पीत शंख प्राप्त नहीं हुआ। पीतशंख का अध्यवसाय होने पर पीत शंख प्राप्त होना चाहिए । यदि पीतशंख का अध्यवसाय होने पर श्वेत शंख प्राप्त होता है तो वह ज्ञान अप्रमाण समझा जायेगा,क्योंकि वह अर्थाविसंवादक नहीं है । अतः यथाध्यवसित अर्थ का प्रापक अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है ।१५५ उत्तरपक्ष-वादिदेवसरि ने बौद्ध प्रमाणलक्षण का खण्डन प्रस्तुत करते हुए प्रतिज्ञा की है कि बौद्धों ने जो अध्यवसित वस्तु के प्रापक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण सामान्य का लक्षण कहा है,वह घटित नहीं होता है। बौद्ध शासन में अध्यवसाय का विषय वस्तु को न मानकर अवस्तु को माना गया है और जो अवस्तु है उसकी प्राप्ति संभव है। कथन भी है-“यथाध्यवसायमतत्त्वात् यथातत्त्वं चानध्यवसायात्” अर्थात् अध्यवसाय के अनुसार तत्त्व नहीं होता एवं तत्त्व के अनुसार अध्यवसाय नहीं होता। ऐसी स्थिति में मूलभूत वस्तु की प्राप्ति अंधकंटकीय न्याय का अनुसरण करती है । ऐसा प्रमाणान्तर से भी नहीं देखा गया कि वह यथाध्यवसित की प्राप्ति कराता हो । यदि बौद्ध कहें कि सन्तान की प्राप्ति से स्वलक्षण वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो यह कथन भी समुचित नहीं है,क्योंकि क्षणिक क्षण की परम्परा से पृथग्भूत पारमार्थिक सन्तान को बौद्धों ने स्वीकार ही नहीं किया है। बौद्धों ने सन्तान के अपारमार्थिक होने पर भी संव्यवहार की महत्ता से इस प्रमाणलक्षण के निर्वाह का प्रयास किया है । बौद्ध कहते हैं कि यह प्रमाण का लक्षण सांव्यावहारिक है ,पारमार्थिक नहीं। परमार्थत : तो अनादि अविद्या की वासना से ग्राह्य-ग्राहकादि भेद प्रपंच का आरोप होता है अन्यथा यह सब विज्ञान मात्र है । इसमें क्या प्राप्त होता है और क्या प्राप्त कराना है ? अर्थात् कुछ नहीं। वस्तुत : ज्ञान में ही अविद्या वासना के कारण ग्राह्य- ग्राहकादि भाव प्रकट होते हैं। १५५.(१) द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क (२) वादिदेवसूरि द्वारा बौद्धमत का उपस्थापन प्रायः धर्मोत्तर की न्यायबिन्दु टीका से मेल खाता है । द्रष्टव्य, न्यायबिन्टीका के प्रत्यक्षपरिच्छेद में विशेषतः१,३ एवं ११वें सत्र की टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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