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________________ १०० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा को उत्पन्न करना ही उसकी प्रापकता है। प्रत्यक्ष का विषय दो प्रकार का है-(१) ग्राह्य एवं (२) अध्यवसेय । ग्राह्य क्षण एक होता है तथा वह समस्त सजातीय एवं विजातीय क्षणों (वस्तुओं) से व्यावृत्त होता है। उसे स्वलक्षण के नाम से जाना जाता है। अर्थ की ग्राह्यता यही है कि वह स्वाकार ज्ञान को उत्पन्न करता है और ज्ञान की ग्राहकता भी यही है कि वह अर्थाकार होकर आत्मलाभ करता है । अध्यवसेय विषय क्षणसंतान होता है । बहुत से स्वलक्षणों के लक्षण से युक्त एवं उपादान तथा उपादेय भाव को प्राप्त अर्थ संतान कहलाता है। उसके अगृहीत होने पर भी अध्यवसेय होने से वह प्रवृत्ति का विषय बनता है। अध्यवसेय अर्थ की सन्तान-अपेक्षा से ही प्रत्यक्ष की प्रमाणव्यवस्था बनती है ,अन्यथा स्वलक्षण तो प्रापक होने में असमर्थ है । इस प्रकार प्रत्यक्ष में सर्वत्र प्रामाण्य का व्यवस्थापन सन्तान के अध्यवसाय की अपेक्षा से होता है ग्राह्य की अपेक्षा से नहीं । सन्तान का अध्यवसाय करने रूप अविसंवादकता होने से प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाता है। फिर प्रश्न उठता है कि प्रत्यक्ष के निर्विकल्प होने से वह संतान का अध्यवसाय कैसे कर सकता है ? बौद्ध इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्षजन्य विकल्प से सन्तान का अध्यवसाय होता है ,किन्तु उसे प्रत्यक्ष से अध्यवसित कहा जाता है। ___अनुमान का विषय सामान्यलक्षण है जो अपारमार्थिक है,अतः भ्रान्त है । तथापि उसके द्वारा मणिप्रभा से मणिबुद्धि के समान वस्तु की प्राप्ति होती है अतः अर्थप्रापकता से अनुमान भी प्रमाण है । उसके भी दो प्रकार के विषय हैः- (१)ग्राह्य एवं (२) अध्यवसेय । उनमें अध्यवसेय विषय स्वलक्षण है,क्योंकि अनुमान के उत्पन्न होने पर अध्यवसाय से अर्थ क्रिया कराने वाली प्रमाता की प्रवृत्ति स्वलक्षण में ही देखी जाती है। अनुमान का प्राह्य विषय तो सामान्यलक्षण ही है । अब प्रश्न उठता है कि वह सामान्यलक्षण बाह्य पदार्थों के तादात्म्य से अध्यवसित होता है अथवा बुद्ध्याकार होता है । बाह्य रूप से सामान्य है, अथवा भीतर ही उसका बाह्य रूप है । परमार्थ रूप से तो अनुमान का कोई विषय नहीं होता,क्योंकि स्वलक्षण तो उसका विषय है नहीं,क्योंकि उसका परिस्फुरण ही नहीं होता है । अनुमान का विषय बुद्ध्याकार भी नहीं होता,क्योंकि बाहर उससे तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता । बाह्य पदार्थ अलीक हैं ऐसा भी नहीं कहा जा सकता,क्योंकि उसके सर्वथा असंभव होने पर अर्थक्रिया सामर्थ्य से शून्यता प्राप्त होती है । अर्थात् जब बाह्य पदार्थ ही नहीं है तो अर्थक्रिया की प्रापक कैसी? जैसे हाथी के लिए सिंह के बालों की कल्पना व्यर्थ है उसी प्रकार अनुमान भी तब निर्वि प हो जायेगा,उसका कोई विषय नहीं रहेगा। अनुमान-प्रमाण भ्रान्त भी है ,क्योंकि वह स्वरूप से अनर्थ में अर्थ का अध्यवसाय करने हेतु प्रवृत्त होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो अनुमान स्वरूप से प्रतीत अनर्थ रूप सामान्यलक्षण में स्वलक्षणरूपता का आरोप करके प्रवृत्त होता है अतः वह भ्रान्त है; फिर भी स्वभाव,कार्य,लिङ्गादि के दर्शन से उत्पन्न होने के कारण वह परम्परा से स्वभाव एवं कारण में प्रतिबद्ध होता है । इसलिए अर्थ का प्रापक होता है। अर्थ का प्रापक होने से अविसंवादक होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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