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________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद अध्यवसाय नहीं करने पर प्रत्यक्ष का प्रामाण्य नहीं है, किन्तु नीलरूप अर्थ में तथाभूत निश्चय करने के कारण वह प्रमाण है ।१५२ अभयदेव कहते हैं कि यह बौद्ध मान्यता विरोधी है। इसके अनुसार तो एक ही प्रत्यक्ष को क्षणिकत्व एवं अक्षणिकत्व के विषय में अप्रमाण स्वीकार कर लिया गया है तथा नीलादि अर्थ में उसका प्रामाण्य स्वीकार किया गया है । फलतः इस प्रकार बौद्धों ने जैनों की भांति अनेकान्तवाद को स्वीकार कर लिया है। १५३ क्षण को ग्रहण करने पर भी उससे विपरीत सन्तान का अध्यवसाय उत्पन्न होने से निर्विकल्पक का प्रामाण्य युक्त नहीं है ,क्योंकि मरीचिका-स्वलक्षण का ग्रहण करने पर जल का अध्यवसाय देखा जाता है जो मिथ्या है । वस्तुतः 'जो मेरे द्वारा तत्त्वतः देखा गया है वही प्राप्त हुआ है' इस प्रकार के अध्यवसाय में ही ज्ञान का प्रामाण्य व्यवस्थापित होता है । दृष्ट क्षणिक सन्तानी (स्वलक्षण) से संतान की प्राप्ति नहीं होती है,क्योंकि वह असत् है । इस प्रकार धर्मोत्तर के मत का पर्यालोचन करने पर परमार्थतः प्रदर्शितार्थप्रापक ज्ञान का प्रामाण्य संभव नहीं है । फलतः बौद्ध मत में संवादकता को प्रमाण का लक्षण मानना अयुक्त है।१५४ अभयदेवसूरि ने इस प्रकार दृश्य एवं प्राप्य क्षण को नितान्त भिन्न बतलाकर,सन्तानी के अभाव में संतान को असत् सिद्ध करके, प्रदर्शित अर्थ के ज्ञान में प्रापकता को अनुपपन्न प्रतिपादित कर धर्मकीर्ति प्रणीत प्रमाणलक्षण को खण्डित किया है,तथा नित्यानित्यात्मक अर्थ को विषय करने वाले अविसंवादक ज्ञान की जैनमतानुसार सांव्यवहारिकता एवं प्रमाणता सिद्ध की है। वादिदेवसूरि द्वारा बौद्ध प्रमाण-लक्षण का उपस्थापन एवं खण्डन-वादिदेवसूरि ने भी अभयदेवसूरि के समान बौद्ध पक्ष का उपस्थापन कर खण्डन किया है । वादिदेवसूरि के द्वारा बौद्ध पक्ष का उपस्थापन अभयदेवसूरि कृत उपस्थापन से वैशिष्ट्य रखता है । अतः यहाँ उसे प्रस्तुत किया जा रहा है । वादिदेवसूरि ने भी धर्मोत्तर की टीका का अवलम्बन लिया है । वादिदेवसूरिने अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण का लक्षण मानने का खण्डन करने के अनन्तर उसकी सांव्यवहारिकता का भी खण्डन किया है। पूर्वपक्ष-बौद्ध "प्रमाणमविसंवादिविज्ञानम्" द्वारा अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं. । अविसंवादकता का अर्थ है- अर्थप्रापकता । यह अर्थप्रापकता प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों प्रमाणों में उपलब्ध है। अतः यही प्रमाण का सामान्य लक्षण है। प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रदर्शित स्वलक्षण क्षण के क्षणिक होने से उसकी प्राप्ति नहीं होती,किन्तु उसके क्षणसन्तान की प्राप्ति होती है । सन्तान के अध्यवसाय १५२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क १५३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क १५४. द्रष्टव्य परिशिष्ट-क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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