________________
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ज्ञान में प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता युक्तिसंगत हो।१४८
यदि बौद्ध कहें कि संवृति से संतान का स्वरूप सिद्ध है इसलिए अर्थप्रापकता में दोष नहीं है तथा संवृति या सांव्यावहारिक रूप से ही प्रमाण का लक्षण प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् निरूपित किया गया है,तो अभयदेवसूरि के मत में यह बौद्ध कथन उपयुक्त नहीं है । अभयदेवसूरि कहते हैं कि यदि इस प्रकार लोक व्यवहार के अनुरोध से प्रमाण में प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता स्वीकार की जाती है तो नित्यानित्य वस्तु के प्रदर्शक ज्ञान में अर्थ प्रापकता स्वीकार करनी चाहिए, क्योंकि लोक व्यवहार में तो वस्तु नित्यानित्यात्मक है१४९,एकान्ततः अनित्य अथवा क्षणिक नहीं। नित्यानित्यात्मक वस्तु के तथाभाव का खण्डन नहीं किया जा सकता,क्योंकि तब सन्तान विषय भी बाधित सिद्ध होता है ।१५०
वस्तुतः बौद्धों के द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष-प्रमाण में अध्यवसित अर्थ की प्रापकता संभव नहीं है, क्योंकि बौद्धों के अनुसार जो अर्थ प्रत्यक्ष से उपलब्ध होता है वही उसके द्वारा अध्यवसित होना चाहिए, किन्तु प्रत्यक्ष का ग्राह्यक्षण स्वलक्षण है तथा अध्यवसाय संतान का होता है, इसलिए प्रत्यक्ष से उपलब्ध अर्थ की प्रापकता सिद्ध नहीं है।
क्षणमात्र रहने वाले सन्तानियों के दृष्ट होने पर उनके पृष्ठभावी अध्यवसाय द्वारा संतान को अध्यवसाय का विषय मानना उचित नहीं है । इस प्रकार अन्यथाभूत वस्तु का ग्रहण करने वाले अन्यथाभूत वस्तु का अध्यवसाय करने वाले ज्ञान में प्रदर्शितार्थप्रापकता रूप प्रामाण्य कथमपि युक्त नहीं है । यदि दृश्यक्षण एवं प्राप्यक्षण के भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें सादृश्य के कारण अध्यवसाय माना जाता है तो शुक्तिका में रजत का अध्यवसाय करने वाले ज्ञान को भी प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि उसमें भी दृश्य एवं प्राप्य क्षण में सादृश्य का अध्यवसाय होता है।
यदि रजत के लिए प्रवृत्त हुए व्यक्ति को रजत प्राप्त नहीं होता है . इसलिए बौद्ध मत में भी प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता नहीं है,तो उसी प्रकार सन्तान के अध्यवसित होने पर भी प्राप्ति क्षण की होती है अतः प्रत्यक्ष में भी प्रदर्शित अर्थ की प्रापकता नहीं है । यदि प्रत्यक्ष में संतान की प्राप्ति होती है तो उसे भी स्वलक्षण की भांति वस्तुसत् मानना चाहिए तथा इस प्रकार अक्षणिक वस्तु की सिद्धि होने के कारण सामान्यधर्मों को स्वरूप से असत् नहीं मानना चाहिए।१५१
बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्ष द्वारा क्षणिक एवं अक्षणिक में साधारण अर्थ को विषय करने पर किसी भ्रमनिमित्त से अक्षणिकता का आरोप हो जाता है,तथापि प्रत्यक्ष अक्षणिक विषय में प्रमाण नहीं होता, उसमें विपरीत अध्यवसाय होने के कारण वह अप्रमाण होता है । क्षणिक अर्थ के विषय में भी अनुरूप
१४८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क १४९. यहां अभयदेव सूरि ने जैन तत्त्वमीमांसा को लोकव्यवहार के लिए उपयोगी माना है। १५०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क १५१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org