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प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद
होता है उसका प्रमाता स्वानुरूप अवसाय को उत्पन्न करने के कारण अर्थ के अविनाभावित्व का निश्चय करता हुआ प्रापणशक्ति के निमित्त प्रामाण्य का स्वतः निश्चय करता है,अन्य ज्ञान की उसके निश्चय हेतु अपेक्षा नहीं करता। अविसंवादकता को इसलिए प्रमाण -लक्षण कहा गया है ।१४५
संक्षेप में कहें तो जिस ज्ञान की अर्थ -प्रदर्शकता में प्रापणशक्ति विद्यमान है वह ज्ञान प्रमाण है । प्रमाण नियत अर्थ का प्रदर्शक होता है। उसकी प्रदर्शकता ही प्रापकता है। वही उसकी अविसंवादकता है । इस प्रकार अभयदेवसूरि ने बौद्धमत के प्रमाण में अर्थप्रापणशक्ति पर बल दिया है न कि उसकी अर्थप्रापकता पर ,तथापि अर्थप्रदर्शकता से ही बौद्धमत में अर्थप्रापकता मान्य है। उत्तरपक्ष-धर्मोत्तर का मंतव्य है कि अर्थ की प्रदर्शकता ही उसकी प्रापकता है । अभयदेवसरि ने इसका खण्डन करते हुए कहा है कि अर्थ का प्रदर्शकत्व ही उसका प्रापकत्व नहीं है,क्योंकि वस्तु के होने पर भी अर्थप्राप्ति हेतु प्रवृत्ति पुरुष की इच्छा के अधीन होती है । प्रदर्शकत्व के सद्भाव में भी “मैं इसके द्वारा प्रवर्तित किया गया हूँ” इस प्रकार प्रदर्शित अर्थ को ग्रहण करने की इच्छा के अभाव में प्रवृत्ति नहीं होती ।१४६
अर्थप्रदर्शकता ही अर्थप्रापकता नहीं है । बौद्धों के द्वारा अभ्युपगत प्रदर्शितार्थ की प्रापकता ज्ञान में कहीं भी संभव नहीं है । अभयदेवसूरि कहते हैं कि अर्थप्रापकता तो बौद्धों के द्वारा संतान के आश्रय से परिकल्पित की जाती है,जबकि संतान ही संभव नहीं है । बौद्ध दर्शन में संतान की मान्यता पर प्रहार करते हुए अभयदेवसूरि कहते हैं कि संतान स्वरूप से सत् है अथवा सन्तानी (स्वलक्षण) रूप से ? स्वरूप से तो संतान सत् है नहीं ,क्योंकि संतानी के अभाव में उसका ग्रहण नहीं होता है । यदि संतानी के अभाव में उसका ग्रहण हो जाता है तो क्षणिकवाद पर आँच आती है । बौद्धमत में सामान्य को स्वीकार करने का भी कोई कारण नहीं रह जाता है। इसलिए संतान की स्वरूप से प्रवृत्त्यादि विषयता नहीं है । सन्तानी रूप से संतान के सत् मानने पर भी संतानी द्वारा ही प्रवृत्त्यादि विषयता होती है। संतानी (स्वलक्षण) से भिन्न संतान प्रवृत्त्यादि का विषय नहीं होता, तथा मुख्य बात यह है कि संतानियों की उत्पत्ति के अनन्तर उनका ध्वंस हो जाने के कारण उनको विषय करने वाले ज्ञान में प्रदर्शितार्थप्रापकता नहीं होती । क्योंकि उनके दृश्य एवं प्राप्य क्षणों में अत्यन्त भेद देखा जाता है ।१४७
जिस बौद्ध दर्शन में देश, काल, आकार, आदि के भेद से, समान प्रतीयमान वस्तु का भी भेद, स्वीकार किया जाता है वहां स्वरूप से भिन्न पूर्व एवं उत्तर क्षणों में अभेद कैसे हो सकता है, जिससे
१४५. अभयदेवसूरि ने बौद्धमत के जिन वाक्यों को उद्धृत किया है, उनमें से अनेक धोतर की न्यायबिन्दु टीका से मेल
खाते हैं । द्रष्टव्य, उपर्युक्त पाद टिप्पण १३७१४४ । संभव है कि कुछ वाक्य धर्मोत्तर की प्रमाणविनिश्चयटीका से लिए
हो, परन्तु सम्प्रति प्रमाणविनिश्चयटीका का संस्कृतमूल अनुपलब्ध है । अतः हम उससे मिलान नहीं कर सके। १४६. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - १४७. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - क
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